पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२७८

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राष्ट्रभाषा पर विचार देखिए और चित्त लगा कर पढ़िए तो 'नागरी' का रहस्य खुले। वह लिखता है- 'नागरी सीन-इस्म मुवन्नसः--(१) नागर की स्त्री, (२) संस्कृत के हुरूफ़ तहजीदेवनागरी अच्छर, (३) हिंदी भाषा-हिंदी भाका, ठेठ हिंदी बोली। 'नागरी ही क्यों में इस जन ने इसका कुछ प्रतिपादन भी कर दिया है अतएव यहाँ इसको और नहीं बढ़ाया जाता है । हाँ, संक्षेप में दिखाया यह जाता है कि इसको मान लेने से भारतीय भाषाओं की अनेक गुत्थियाँ आप ही सुलझ जायेंगी और 'दखिनी' को जो 'गूजरी' कहा गया है उसका भेद भी खुल जायगा। किंतु इससे एक बड़ी भारी क्षति भी होगी। और वह यही कि अब 'सर्वे' की आड़ में 'हिंदी' का शिकार न हो सकेगा और न दोनों लिपियों का विधान कर जनता को हिंदुस्तानी के भँवजाल में अधिक डाला जा सकेगा। साँच को आँच कहाँ ? पर अंजन को आँख चाहिए न ? यदि आँख ही नहीं तो कालिख तो वह है ही। आपका 'दिठौना' किसी की दीठि कलंक का टीका दिखाई दे तो इसका उपचार क्या ? हम तो नागरी से ही देश का हित समझते हैं और उसी से आपकी आँख को आँजकर आप की दृष्टि को ठीक करना चाहते हैं। वैसे आपकी इच्छा। हाँ, तो बड़े अभिमान से पूज्य महात्मा जी के पत्र 'हरिजन सेवक' में कहा गया और सच सच कहा गया है कि-- विधान-सभा राष्ट्रभाषा का निर्णय करनेवाली अथवा उस पर शास्त्रीय ढंग से चर्चा करनेवाली संस्था नहीं है । ज्यादा से ज्यादा वह राजभाषा के बारे में निर्णय कर सकती है। लेकिन इसमें भी उसे जनता से निर्णय लेना चाहिए।