पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२७७

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हिंदुस्थानी का भँवजाल २६७ उसका 'हिंदी' रूप क्यों है ? जो हो, पर ग्रियर्सन तो अपनी कर गए और 'सरकार की ओर से कह गए कि बस यही साधु रूप है, और केवल इसी का व्यवहार करो । सो भी सही। परंतु बात यहीं तक नहीं रही। उन्होंने आगे बढ़कर इस 'हिंदोस्तानी' के घर-घाट का पता दिया और प्रमाण माना अपने घर के लोगों को ही। किसी ने कहा जो गंगा-यमुना के उत्तरी द्वाब में बोली जाती है वही खड़ी हिंदुस्तानी है और किसी ने बताया जो दोनों लिपियों में लिखी जा सकती हो वही हिंदुस्तानी है। पर देखा किसी ने नहीं कि स्वयं इसके घर के लोग इसे क्या कहते हैं। आपको इस सरकारी भाषा-पड़ताल में यदि 'नागरी भाषा का नाम न मिले तो आश्चर्य नहीं। अवरज तो तब होता जब इसे 'हिंदुस्तानी' न कहकर 'नागरी' कहा गया होता और नागर अपभ्रंश का प्रसार कल कर दिखाया गया होता, या लल्लूजी लाल के समय से हिंदी में जो 'खड़ी बोली' का नाम चल पड़ा है उसी को ले लिया गया होता। यह सब इसी से तो नहीं हुआ कि इससे सरकार का काम नहीं बनता और हिंदी-उर्दू का अखाड़ा गरम न होता। नागरी भाषा का भी नाम है इसे पंडित सरजार्ज इब्राहीम निय- सन मानते ही नहीं, आप भले ही कितने ही प्रमाण दे लें। कारण वही कूटनीति है जो तोड़ो और चमको पर टिकी है। हिंदू मुस- लिम-मेल के लिये अँगरेज का होना आवश्यक था तो हिंदी-उर्दू- मिलाप के लिये हिंदुस्तानी, नहीं नहीं, हिंदोस्तानी' का होना जरूरी। आप अँगरेज' को तो समझ गए पर अँगरेजी नीति को नहीं। श्राप होने को तो 'आजाद' हो गए पर गुलामी कर रहे हैं किसी प्रियर्सन की ही। किंतु आप ही का 'अहमद 'सर सैयद । अहमद' नहीं, मौलवी सैयद अहमद, किसी 'फरहंग श्रासफिया' में लिख रहा है कि नागरी 'ठेठ हिंदी बोली' का नाम है। ध्यान से