पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२७६

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राष्ट्रभाषा पर विचार गांधीभक्त जो हृदय पर हाथ रख और उन्हीं का 'फूल' नहीं तो चित्र हाथ में लेकर कहे कि यथार्थ में यह बात नहीं है। माना और हम जानते भी हैं कि इसमें हमारे देश का अज्ञान भी बहुत कुछ काम रहा है पर हम यह मान नहीं सकते कि इसमें हठ और दुराग्रह का कुछ भी हाथ नहीं है। नहीं हमारा हाथ यदि खाली है तो अपने आपसे, हमारा मस्तिस्क यदि रीता है तो अपने आपसे। हम अपने 'आप' को छोड़कर सब का सब कुछ करना चाहते हैं और जानते इतना भी नहीं कि 'घर में दीया बार कर मसजिद में दीया बारते हैं' की कहावत बहुत पुरानी है और आज भी उसी प्रकार हम अंधों को अपना प्रकाश दे रही है। क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या सिक्ख, क्या ईसाई, किसी भी देशवासी ने इस रहस्य को कब समझा है और यदि समझा है तो इस देश के परदेशी 'तूरान' या 'उर्दू सर- कार ने ही। हिंदी ने कदापि नहीं। और हमारे प्रधान नेता भी तो हिंदी ही हैं न ? उधर 'चर्चिल' नहीं स्वर्गीय डाक्टर ग्रियर्सन को देखिए । श्राप हिंदुस्तानी के परम भक्त थे। सदा जनता का गुन गाते थे । उसकी बोलीवानी को बेद से बढ़ कर बताते और सब को ठेठ वानी का पाठ पढ़ाते थे। किंतु कोई उनकी आत्मा से बुला कर तो पूछे-बाथा ! आपने हिंदुस्तानी' को हिंदोस्तानी' 'क्यों कर दिया ? क्या यहाँ का कोई गवार या काजी ऐसा बोलता है ? नहीं, उनकी समझ में यही पक्की फारसी जो है ? लेकिन जानकारों से छिपा नहीं है कि फारसी का शुद्ध उच्चारण 'हिंदुस्तान' ही है, कुछ हिंदोस्तान नहीं, 'हिंदुस्तान' को चाहे 'वाव' से लिखें चाहे 'पेश' से, पर पढ़ेंगे उसे सदा हस्व ही। 'हिंदोस्ताँ' या हिंदोस्तान' पद्य में भले ही साधु समझे जायँ पर बोलचाल में तो ईरान में भी चलता है 'हिंदुस्तान' ही। मूल शब्द है भी तो 'सिंधु' ही, फिर