पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२७५

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हिंदुस्थानी का अवजाल हम पहले ही बता चुके हैं कि हिंदुस्तानी का यही अर्थ आज विश्व में माना जा रहा है। किंतु कहीं कहीं इसमें कुछ परिवर्तन भी गया है। आज हमारे देश के महात्मा लोग उसी की पूँछ पकड़कर इस वैतरणी को पार करना चाहते हैं और चाहते हैं महात्मा जी के नाम पर उन्हीं के त्याग की ओट में ऐसा करना। परंतु सच पूछिए तो स्वयं महात्मा जी भी इसके पुरोहित नहीं यजमान थे और जीवन के अंतिम क्षण तक इसक्षा आचरण इसी अल्लामा की पुरोहिती अथवा डाक्टर ग्रियर्सन सार की विधि से करते रहे थे। उसकी आलोचना के पहले कुछ इस 'बोलचाल' का रहस्य भी समझ लीजिए। उर्दू की बोलचाल में आप कभी नहीं कह सकते 'वे' । उर्दू में 'वह' का बहुवचन होता ही नहीं। वह अव्यय हो गया है। पर 'हिंदी में होता है और मीर अम्मन देहलवी की 'ठेठ हिंदुस्तानी' रचना 'बारा वो बहार' में पाया भी जाता है । उर्दू में 'देश' कभी नहीं चल सकता, सदा उसे देस' ही होना पड़ेगा। और यदि आप कुछ कहना चाहेंगे तो सेंटर से डा. ताराचंद बोल उठेंगे-हिंदी गाँव से दूर जा पड़ी है। गाँव के लोग 'देस' बोलते हैं। किंतु यहाँ भी आप ठगे जा रहें हैं और धोखा खा रहे हैं और यह नहीं जानते कि उर्दू में आप का 'प्रसाद' नहीं रह सकता। नहीं, 'हमारी जबान में तो उसे 'परशाद' होना ही होगा। और हिंदुस्तानी में ? इसकी कौन कहे ! पूज्य बापूजी की भी तो उसकतोष के लिये अपने प्रिय 'मौन' को छोड़कर 'खामोश' को अपनाना पड़ा-यद्यपि 'चुप' से भी यह काम चल सकता था। निदान हिंदुस्तानी प्रेमी उक्त अल्लामा का ही यह दावा है कि यह लमज हिंदुस्तानी मुसल- मानों के इसरार से और मुसलमानों ही की लिपल तसल्ली के लिये रक्खा गया है' कौन है हिंदुस्तानी का ऐसा लाइला