पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२७३

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हिंदुस्थानी का भँवजाल २६३ 'हिंदी' की वकालत की गई है वह वही हिंदी है जिसका विरोध 'उर्दू की ईजाद के कारण बड़े वेग से बढ़ रहा था और कुछ ही दिनों बाद जिसके लिये नूरमुहम्मद को 'दीन' की दुहाई तक देनी पड़ी थी। पर यह सब धर्म खाते में पड़ा रहा और 'मुसलमान ने 'हिंदी' को 'हराम' समझ लिया। यहाँ तक कि किसी हिंदू-कथा का लिखना भी गुनाह हो गया। जिज्ञासा हो तो एक जन की 'अनुराग-बाँसुरी' की भूमिका पढ़िए और 'हवा' को सदा के लिये पहिचान लीजिए । देखिए 'फारसी' के प्रेमी भी हिंदी की उपेक्षा करते थे पर कुछ और ही रूप में । उसका समाधान भी कुछ और ही ढङ्ग से किया जाता था। जैसे हिंदी के प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद- अरबी, तुरकी, हिंदुई, भाषा जेती प्राहि । जेहिं माँ मारग प्रेम कर, सुकवि सराइईि ताहि ॥ में 'प्रेम' को महत्व देते हैं तो 'मुल्ला बहरी-- हिंदी! तू ज़बान चे है हमारी, कहने न लगे इमन भारी । और फारसी इस ते अति रसीला, हर हर्ष में इश्क है न हीला | में 'इश्क' को। किंतु साथ ही 'काजी महमूद बहरी' कुछ और भी बता जाते हैं। हमारी जबान' और 'न लगे हसन भारी' में.जो ममता, जो वेदना और जो उल्लास छिपा है वह किसी अंधे से भी श्रोमल नहीं। मलिक मुहम्मद जायसी शेरशाह के समय के जीव ठहरे और काजी महमूद 'बहरी' औरंगजेब आलमगीर के काल के प्राणी ! इतने वर्षों में बयार किधर को वही, प्रत्यक्ष है। फिर भी हम 'बहरी' के इस 'हिंदी- अभिमान का स्वागत करते और जानना चाहते हैं कि आज इसका विरोध क्यों ? केवल इसीलिए न कि अब उसको मुँह लगाना 'हिंदू' हो जाना है ! हो, पर सच तो कहिए, इसका मर्म क्या है-