पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२७

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राष्ट्रभाषा पड़ोसी प्रांत हैं। नगर कोट और कुछ नहीं काँगड़ा वा त्रिगर्त अच्छा, तो कश्मीर के प्रसिद्ध इतिहासकार कल्हण अपनी राजतरंगिणी में लिखते हैं- "स गुर्जरजमृव्यग्रः स्वपराभवशङ्किनम् । त्रैगत पृथ्वीचंद्र निन्ये तमसि हास्यताम् ।। १४४ ।। उच्चखानालखानस्य संख्ये गूर्जरभूभुजः ! बद्धमूला क्षणाल्लक्ष्मी सुर्च दीर्घामरोपयत् ।। १४६ ।। तस्मै दत्वा टक्कदेशं विनयादङ्गलीमिव । स्वशरीरभिवापासीमण्डलं गुर्जराधिपः ।। १५० ॥" (पंचम तरंग) डाक्टर भंडारकर ने जिन शासकों का उल्लेख नागर के विस्तार में किया है प्रायः उन सभी जत्थों की गणना 'शाहाने गूजर में गूजर के भीतर की गई है। यहाँ अब यह देखना रह जाता है कि इस दौड़ में टक्क कहीं किसी से पीछे तो नहीं रह गए। अपनी धारा तो यह है कि वस्तुतः ठाकुर, ठक्कुर वा टगोर टक्क का ही अपभ्रंश है । डाक्टर भंडारकर ने जितना ध्यान 'कायस्थ और 'नागर' पर दिया है उसका दशमांस भी यदि 'ठक्कुर' पर देते तो स्थिति बहुत कुछ सुलझ जाती। कुर्ग में तो आज भी पंचायत 'टक्क' (वृद्ध) ही करते हैं और बंगाल में भी टाकी ( चौबीस परगना में ) स्थान है। ठक्कुर शब्द का प्रयोग केवल क्षत्रिय के लिये ही नहीं, अपितु कायस्थ और ब्राह्मण के १-यह पुस्तक 'दारुल-मुसन्निफीन' श्राजमगढ़ से उर्दू में प्रकाशित हुई है। २