पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२६९

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हिंदुस्थानी का भँवजाल इसलिए थोड़ा इसको भी देख लेना चाहिए। सो सबसे पहले श्री कवींद्राचार्य की सूची को लीजिए। आप को कुछ फारसी के प्रेमी भी जानते ही हैं। कारण, 'कवींद्र' की उपाधि शाहजहाँ की ओर से ही मिली है और वही 'उर्दू-ए-मुअल्ला' (भाषा नहीं, उसके अड्डे लाल किला ) का निर्माता भी है। हाँ, तो 'कवीन्द्राचार्य सूचीपत्र में कई स्थलों पर 'हिंदुस्थानी भाषा' का ही नहीं उसके अंधों का उल्लेख है। संख्या १०११ में "हिंदुस्थानी भाषाकृत ग्रंथ वैद्यक' का उल्लेख है, तो संख्या १०१३ में 'वैद्यविद्वज्जनोल्लासग्रंथ हिंदुस्थानी भाषेचा' एवं संख्या २१६५ में 'बुद्धिसेनकृत हिंदुस्थानीभाषेचा' का। तात्पर्य यह कि सर्वत्र भाषा का नाम हिंदुस्थानी ही किया गया है कुछ 'हिंदी' या 'हिंदुस्तानी' नहीं। कारण वही 'अहिंदी क्षेत्र' का होना है। सच तो यह है कि अभी तक एक भी प्रमाण ऐसा न मिला जिससे सिद्ध हो कि हिंदी भाषी भी अपनी भाषा को कभी हिंदुस्थानी वा हिंदुस्तानी कहते रहे हों । निश्चय ही इस नाम का प्रचार फिर- गियों के द्वारा ही इतना व्यापक हुआ और उन्होंने इसे दक्षिणियों सीखा। जो लोग 'सबरस' के आगाज दास्तान, जवान हिंदोस्तान' को हिंदुस्तानी की प्राचीनता की सनद मानते हैं उनसे भी हमारा यही कहना है कि यह भी 'दक्षिण' की ही बात है, और हमारी समझ में तो यह नहीं आता कि 'वजही' ने 'भूमिका' में ही शीर्षक का विधान क्यों किया, सारी कहानी में करता तो कोई बात भी थी। जो हो, उसने कहीं हिंदुस्तानी जवान का प्रयोग नहीं किया है और किया भी है तो 'हिंदी' का ही । देखिए, वह स्वयं लिखता है- 'कोई इस बहान में, हिंदुस्तान में हिंदी ज़बान सों इस लताफ़त