पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२६७

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हिंदुस्थानी का भँवजाल हों इतने चौकि परी मेरी प्राली मेरी कृतिया धीर धरव न । जगन्नाथ कविराय के प्रभु रीमि हँसे तब होहुँ हँसी वह सुरत कहत बनय न। (संगीत रागकल्पद्रुम, २रा खंड, पृ. १४५) 'गीय साहित्य परिषद्-मंदिर' का कार्य सराहनीय है कि उसने इस अनुपम ग्रंथ का प्रकाशन किया, किंतु खेद इस बात का है कि इसका संपादन ठीक न हो सका। फिर भी भाषा स्पष्टरूप से ब्रजभाषा ही है, कुछ हिंदुस्तानी' याने 'उर्दू नहीं। हिंदुस्तानी' का प्रयोग कभी 'हिंदी' के लिये ही होता था इलके विदेशी प्रमाण भी पाये जाते हैं। हासन जाब्सन' के आधार पर 'हिंदुस्तानी' में कहा गया है- सन् १५८२ में पादरी एकवा वीवा (Aqua Viva) ने एक खत पादरी रूई वीनसैट ( Ruy Fincente) के नाम लिखा, रूई धानसेंट गोवा में रहता था और इस सूवे का सदर । प्राविंशल) था । इस खत में एका बोवा ने यह तजवीज़ की कि गोवा में एक मदरसा कायम होना चाहिए जिनमें मुसलमानों के लिये फारसी और दीगर मज़ब वालों के लिये हिंदुस्तानी की तालीम हो । जाहिर है कि हिंदुस्तानो से मुद्दश्रा वह जवान है जो हिंदू बोलते थे । और- टेरी ( १६१६ ) इस ज़बान के मुताल्लिक यह भी खबर देता है कि यह बाई से दाई तरफ़ लिखी जाती है । (हिंदुस्तानी रिसाला, सन् १६३८, पृ०२२२-३) इतना ही नहीं, सन १६७४ में एक खत इंगलिस्तान से कंपनी के डाइरेक्टरों ने फोर्ट सेंट जार्ज भेजा। उसमें इस एलान का एआदह है-