पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२६४

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राष्ट्रभाषा पर विचार चूँकि शुरून शुरू में जो पुर्तगाली, या इस्पेनी, या और अगले यूरपियन यहाँ श्राए, बल्कि खुद अँगरेजों ने भी इस जवान को सहीह तौर से 'हिंदुस्तानी' कहा तो हम में से अकसरों को यह धोका हुआ कि यह नाम अँगरेजों का बक्सा हुआ है। हालां कि इस ज़बान का यह नाम हम अपने हिंदुस्तानी के मक़ाला में बता चुके हैं कि 'बादशाह- नामा' और तारीख 'फरिश्ता' तक में मौजूद है। फ़रिश्ता में श्रादिल- शाह सानी वाली बीजापूर के सुतल्लिक है कि 'ता वहिंदुस्तानी मुत्क- लिम नमी शुद |" शाहजहाँ की दरबारी तारीख 'बादशाहनामा' में है "नमः सरायाने हिंदुस्तानी जबाद" तलाश से और भी मिसालें मिल सकती हैं। इसलिये यह शुबहः दूर हो जाना चाहिए कि इस जवान का यह नाम फिरंगियों ने रक्खा है। बल्कि यकीन करना चाहिए कि 'हिंदी' के बाद हमारी ज़बान' का यह वह नाम है जो हमारे बुजुर्गों ने रक्खा था, और हमको भी इस नाम को बाकी रखना चाहिए।" (वही, पृ० १०७-८) विचारने की बात यहाँ यह है कि फारसी में 'हिंदुस्तानी' का प्रयोग किस भाषा के लिये हुआ है और इसको प्रयोग में लानेवाले किस क्षेत्र के लोग हैं। सो इतना तो सभी जानते हैं कि 'फ़रिश्ता' दक्षिण का अधिवासी था और 'बादशाहनामा' का लेखक लाहौर का बासी। 'लाहौरी' उसके नाम के साथ लगा भी रहता है। फरिश्ता का पूरा कथन है- इसके बाद शाहनिवाज़ खाँ ने नत्र व नज्म की किताबें शाही मुलाहिजा में पेश करनी शुरु की। अदालतपनाह ने उन किताबों का मुताला' शुरु किया और देखते ही देखते फारसीख्वाँ हो गए। १-पर्यवेक्षण । २-फारसीविद् ।