पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२६२

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राष्ट्रभाषा पर विचार याज़ भी है कि मुसलमान इन सूत्रावार बोलियों में अरबी फारसी लफ्जों को मिलाकर बोलते हैं, और इन सूत्रों के असल बाशिन्दे उनको खालिस और बेमेल बोलते हैं। (नुकूशे सुलैमानी, पृष्ठ २५१) अब यदि यही बात है तो इसके कारण पर ध्यान देना चाहिए और देखना यह चाहिए कि स्वयं हिंदी की क्या स्थिति है। और क्या कारण है कि अन्य देशभाषाओं में तो कोई विभेद खड़ा न हुआ पर हिंदी में हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी का बखेड़ा खड़ा हो गया। और लुत्फ की बात तो यह ठहरी कि तीनों नामों के विधाता विदेशी या मुसलमान ही ठहरे। उर्दू के मुसलमानी होने में कोई संदेह नहीं। आज चर्चा भी उसकी नहीं 'हिंदुस्तानी' की है। पर यह 'हिंदुस्तानी' है क्या ? किसी की नहीं 'हरिजनसेवक' की सुनिए । वही श्री 'अमृतलाल नाणावटी जी लिखते हैं- लेकिन अगर कोई हिंदुस्तानी के मानी उर्दू करता है, तो वह ख्वाब देखता है, और वह उसका ख्वाब ही बना रहेगा । यह कई बार साफ कर दिया गया है कि हिंदुस्तानी वह जवान है, जिसमें हिंदी और उर्दू का कुदरती मेल । (वही, पृष्ठ १) भला इस अभिमान का कोई ठिकाना है ! आप साफ करते रहे पर आप की सफाई को मानता कौन है ? और यह हिंदी और उर्दू का कुदरती मेल हैं। क्या ? कहाँ है ? किस भूमि और किस क्षेत्र में किसके घर है ? पुष्ट प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि उर्दू लालकिला की शाही बोली का नाम है और है वह आदि से अन्त तक मुगली । नहीं नहीं, बादशाहजादी हिंदी और हिंदुस्तानी भी उसी का चलता और सब जग-प्यारा नाम है । रही हिंदुस्थानी की बात । सो ठेठ अहिंदी जनता में हिंदी