पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२६१

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हिंदुस्थानी का भँवजाल बात तो है 'संस्कारी' और 'व्यवहारी' गुजराती का अलग अलग होना एवं पारली गुजराती का हिंदू गुजराती से भेद । सच तो यह है कि यदि महात्मा जी अपनी जन्मभाषा को ही भली भांति मीमांसा करते तो भी उन्हें पता चल जाता कि वास्तव में जैसे पारसी-गुजराती भी गुजराती ही है और फलतः लिखी भी उसी लिपि में जाती है वैसे ही मुसलमानी हिंदी भी वस्तुतः हिंदी ही है और लिखी भी जानी चाहिए हिंदी लिपि में ही 1 परंतु ऐसा हो न सका। यहाँ लिपि ही नहीं बदली अपितु नाम भी बदल गया। और फलतः आज 'हिंदुस्तानी' का संग्राम छिड़ गया । परंतु तथ्य की बात यह है कि सभी देशभाषाओं में मुसलमानी भाषा देशी भाषा से कुछ भिन्न है पर लिपि की एकता के कारण अलग नहीं हो पाती। उस मुसलमानी भाषा की प्रवृत्ति क्या है, इसे उसी अल्लामा सैयद सुलैमान नदवी साहब के मुँह से सुनिए । कहते हैं- इसलामी अहद की अदनी तारीख के गहरे मुताला' से मालूम होता है कि यह मखलूत ज़बान सिंध, गुजरात, अवध, दकन, पंजाब और बंगाल हर जगह की सूबाबार ज़मानों से मिलकर हर सूबा में अलग- अलग पैदा हुई, जिनमें वसूलियत के साथ ज़िक्र के काबिल सिंधी, गुजराती, दखिनी और देहलवी हैं । जिन सूत्रों की बोलियों को अलग वजूद नहीं बख्शा गया उतमें भी यह अब तक मानना पड़ता है कि उनकी दो किस्में है--एक मुसलमानी और एक खालिस देसी। चुनांचे बंगाली, मरहठी, कन्नड़ी, तिलंगी, मलयालम, हरएक में मुसलमानी बोली खालिल बोली से अलग है । मुसलमानी बंगाली, मुसलमानी मरहठी, सुसलमानी तिलंगी, खालिस बंगाली, खालिस मरहठी और खालिस तिलंगी से अलग और मुमताज है । यह इम्त- १-पर्यालोचन । २-मिश्रित ।