राष्ट्रभाषा पर विचार खबर लखबावलामो इत्यादिनों वर्ग। एका बे म्हाटो मुख्य विभागो तो हिंदु लेखकोमा पण कुदरती रीते होवा जोइए अने छे; पण शियाल ताणे सीमभड़ीए कहेवतने न्याये पारसीनो फारसी शब्दो तरफ प्रीति अने वलण देखाडे छे, ज्यारे हिंदु लेखको जडबांतोड़ संस्कृत शब्दो जोडी मुके छे। श्रा एक अंग्रेजी केलवणीना बाजी पांगरवा मांडया पछी पधारे म्होटे भागे साहित्यना कजिया सरखो बनाव थई गयो छे; अने तेथी नहि इच्छवा जेवा प्रसंगी हजी सुधी पेदा थया नथी परंतु ए बाबतमा वबारे चोखटवाली समजण थवानी खास जरूर लागे छे। ('वसन्त' रजत-महोत्सव-स्मारक-ग्रंथ १६२७, अहमदाबाद, पृष्ठ २४७) श्री राणीना जीने पारसी-गुजराती साहित्य के विषय में जो कुछ कहा है उसका भाव स्पष्ट यह है कि गुजराती के पारसी लेखक भी दो प्रकार की भाषा बरतते हैं। उनकी विशेषता यह है कि पारसी की ओर स्वभाव से ही अधिक झुकते हैं । इधर अँगरेजी के प्रभाव से कुछ हिंदू लेखक भी संस्कृत की ओर बढ़ रहे हैं और घोर शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं जिससे अहित की आशंका है। हम इसी के साथ इतना और कह देना ठीक समझते हैं कि यही आज का युगधर्म है। सभी अपने अतीत से बल प्राप्त कर अपने को दृढ़ करना चाहते हैं और अतीत के अध्ययन के अभाव में कोस की शरण लेते हैं। अतएव स्थिति का सामना न कर किसी को कोसना व्यर्थ है। हाँ, तो श्री राणीना' जी ने 'हिंदुस्थान का प्रयोग 'पाकिस्तान निर्माण के कारण नहीं, गुजराती पानी के हेतु किया है। यही गुजराती का खरा और ठेठ घरेलू शब्द है। फारसी से प्रभावित लोग ही इसे 'हिंदुस्तान' कहते हैं। किंतु और भी विचारणीय
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