पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२५६

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राष्ट्रभाषा पर विचार दोनों में बोलते हैं। इसलिए 'हिंदुस्तान' 'हिंदु श्रस्थान' भी हो सकता या । ( नुकशे सुलैमानी, दारुल मुसनिफ्फीन, आजमगढ़ १९३६ ई०, पृष्ठ १०५) तात्पर्य यह कि हिंदुस्तान' कहें या 'हिंदुस्थान' भाव इसका 'हिंदु का स्थान' ही होगा। और यदि धृष्टता न हो तो 'हिंदुस्तान' का अर्थ है भी यही। हाँ, विदेश में हिंदी मुसलमान भी 'हिंदू' कहा जाता है, इसे टाँक लें और इतना और भी जान लें कि अरब इसलाम के पहले से भी इस देश को हिंद और खुरासान हिंदुस्तान क्या हिंदुस्थान कहते थे। यदि 'हिंदुस्तान' शब्द का प्रचार इस देश में मुसलमान के साथ होता तो मध्यदेश न तो कभी हिंदुस्तान ही बनता और न कभी अहिंदी भाषी अपनी ठेठ बानी में हमें 'हिंदुस्थानी' ही कहते । हाँ, हाँ, नोट कर लें, गाँठ दे लें, और हिंदुस्तानी में गठिया भी लें कि मूल शब्द 'हिंदुस्थान' ही है और इस देश में इसके प्रचारक हैं 'शकादि' ही। शक स्थान, मूलस्थान आदि के साथ इसकी तुलना कीजिए और कृपया भूल न जाइए कि अरबी के प्रचार के पहले ईरानी 'थ' बोलते थे। 'जरथुष्ट्र' का 'थ' इसका साक्षी है । इस- लाम ने अरबी लिपि में लाकर इसे 'त' अवश्य किया। जो हो, अभी तो हमें यह दिखाना है कि 'हिंदुस्थान' का प्रयोग 'पाकि- स्तान' के निर्माण क्या, उसकी कल्पना से भी पुराना है और है इसका खड़ा, ठेठ रूप ही, कुछ 'हिंदुस्तान' का विकृत रूप नहीं। सुनिए, श्राज से कोई ३५ वर्ष पहले संवत् १९७० वि० में किसी श्री राधामोहन गोकुलजी ने लिखा था, और उसके सम्पादक थे हमारे राष्ट्रपति देशरत्न श्री राजेन्द्रप्रसादजी ही। उनका कहना है-