पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२५४

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२४४ साथ राष्ट्रभाषा पर विचार तो मूल से कोई नाता ही नहीं। ठेठ में इसे कहना हो तो बड़ी सरलता से कह सकते हैं कि 'इससे यह जताया जाता है। और यदि इसे और भी 'शिष्ट' रूप में कहना हो तो कहा जा सकता है कि इसके द्वारा यह सूचित किया जाता है। अब इसको भी जो न समझे वह इस देश का वासी नहीं, निवासी चाहे जहाँ कहीं का हो । फारसवालों के ढंग पर अपने नाम के अपना गाँव जोड़ लेना पर्याप्त न होगा। नहीं, उनका देश-प्रेम भी अपना होगा। देखिए, यह ईरान की राष्ट्रीयता ही तो है जो इस देश में भी रोजा' और 'नमाज' को तो सब जानता है पर 'सौम' और 'सलात' को बिरला ही। 'जकात' से कहीं अधिक प्रचलित है 'खैरात' और क्यों ? कहाँ तक कहें, यदि लेखा लिया जाय तो 'खुदा' 'अल्लाह' से कहीं अधिक आगे बढ़ जायगा । और क्यों ? इसी से तो कि ईरान ने अपने को सँभाला और इसलाम में वह कर दिखाया जो अरब से न हो सका ? सो भी इसलाम कबूल कर । और आप चाहते हैं कि हिंदुस्तान, हिंदू का हिंदुस्थान होते हुए भी अपनी जबान काट दे और सदा अरब-फारस के मुँह से बोले ? भला कहें तो सही 'फारसी' की कहीं कोई पूछ है ? आज तो उसका देश फारस' से ईरान' हो गया और फलतः वहाँ ईरानी की ही प्रतिष्ठा है । बस, आपकी यह विषभरी बात आप हो या आपके 'जमाना' तक ही रहे, नहीं तो और आगे बढ़ने से आपका उपहास और देश का विनाश होगा। क्या कहा ? कोई 'हरिजनसेवक' कह रहा है कहत्ता रहे। हमें उसकी चिंता नहीं। हम उसके उस्ताद को जानते और उसके गुरु को पहिचानते जो हैं। देखिए न, उसका लाडला 'अमृतलाल नाणावटी' क्या कहता है। यही न- हिंदी के प्रेमी हिंदी को उसकी जगह से घसीटते यहाँ तक ले पाए