पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२५३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिंदुस्थानी का भँवजाल २४३ और 'अंगुठी' को कौन नहीं जानता १ अब आप ही कहें इतनों के दादा अंगुष्ठ' का यहाँ राज्य है कि आपके आका 'अंगुश्त' का । भाई सच बात तो यह है कि आप जिन्हें 'मशहूर' की कसौटी समझते हैं उनका संबंध इस देश से कभी का छूट चुका है, और आज वे समाज में आटे में नमक के बराबर भी नहीं हैं। आँख खोलकर देखने और कान खोलकर सुनने का कष्ट करें तो आपको 'बादी मुद्दई के साथ लगा दिखाई देगा, और यदि कुछ आगे बढ़ने का साहस होगा तो पता चलेगा कि किस प्रकार विदेशी शासन ने देशी शब्दों को देशनिकाला दिया है। दूर की बात जाने दीजिए । 'फरियादी' और 'श्रासामी' जैसे सरल और प्रचलित शब्दों को खदेड़ कर ही 'मुद्दई! और 'मुद्दालेह' आपकी अदालत में आम हुए हैं। फारसी को खदेड़ कर अरवी आई। और क्यों ? अहिंदी होने के कारण ही न ? अवश्य ही इन आक्रमणकारी शब्दों को राजसत्ता के साथ पदच्युत होना होगा और अधिकारी शब्दों का अधिकार अपने स्थान पर फिर होगा। इसे कोई रोक नहीं सकता। आपने राजभाषा का पक्ष लिया है लोकभाषा का कदापि नहीं। कल की राजभाषा याने फारसी का पचड़ा हो गया अब आज की राजभाषा (१) अंगरेजी को लीजिए और दोनों को एक साथ ही देखिए । आपका कहना है-It is hereby noti- fied', देसी ज़बान में इसका तरजमा यह होगा। इस तहरीर के जरिया एलान किया जाता है। (वहीं) भाव यह कि 'देसी ज़बान' में संज्ञा तो अपनी हो ही नहीं सकती, वह दो सदा अरबी-फारसी ही रहेगी । कहिए न तहरीर' 'जरिआ' और 'एलान' किस देश के शब्द हैं ? और तहरीर' का