पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२५२

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२४२ राष्ट्रभाषा पर विचार सैयद मकबूल हुसैन अहमदपूरी, बी० ए०, एल० एल० बी० साहब की वकालत देखने योग्य है ।आपको शिकायत अपनों से है। पाकिस्तान से आपका अपना कोई नाता नहीं। न सही, पर मानवता का नाता तो है ? सुरक्षा समिति में आप अपने देश के प्रतिनिधि होकर जायँ तो क्या वहाँ आपका यही पक्ष होगा ? आप यहाँ रहते हुए भी संस्कृत को 'मध्य एशिया से आई' बताते और १५०० वर्ष पहले की मरी बानी समझते हैं। फिर आप ही कहें आप पाकिस्तान में संस्कृत का प्रचार देख सकेंगे ? पाकिस्तान में अरबी का प्रचार क्यों हो ? पाकिस्तान की किसी बोली से अरवी का कोई नाता ? रही संस्कृत की बात । सो किसी भी जानकार से पूछ देखिए, 'सप्तसिन्धु' संस्कृत घर है । पश्तो, पंजाबी और सिन्धी और बंगाली सभी पाकिस्तानी भाषाएँ आर्यभाषा की संतति हैं। उनका संस्कृत से जो लगाव है वह फारसी से भी नहीं, अरबी का तो नाम ही क्या ? देखिए, आपको अभी देखना है कि 'फारसी अंगुश्त' संस्कृत 'अंगुष्ठ' से कहीं अधिक पिछड़ा है और फलतः 'अंगुल' मात्र का द्योतक है। हिंदू को तो अलग रखिए और लीजिए केवल मुसलमान को। कहिए तो सही एक मुसलमान यदि 'अँगूठा चूमना' और 'अँगूठे बाँधना' का प्रयोग करता है तो दूसरा सुसलमान उसका अर्थ क्या समझता है । क्या पहला हर्ष और दूसरा विशद का पता नहीं देता ? पैग़म्बर की प्रशंसा में मुसलमान 'अंगूठा चूमता' तो मरने पर मुसलमान के 'अंगूठे बाँधे जाते हैं जिससे शव सीधा पड़ा रहे। कहिए, मुसलमान में यह 'अंगूठा' कहाँ से आया ? मशहूर 'अंगुश्व' या १५०० वर्ष पहले के 'अंगुष्ठ' से ? मीर हसन साहब फर- माते हैं- कहा जो परीजाद ने हाथ ला । अंगूठा दिखाया कि इतरा न जा !