पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२५०

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२४० राष्ट्रभाषा पर विचार ख्वाजा मीर दर्द के गद्दीधर, हकीम ख्वाजा सैयद नासिर नजीर साहब 'फुराक' देहलवी ने जो कुछ फरमाया है, ठीक है। उर्दू का इतिहास इसी की साख भरता है। एक दूसरा उदाहरण लीजिए । बात साहब आलमों ( राजकुमारों) की है। बेटा पढ़ता है- . साँस इक फाँस सी खटकती है, दम निकलता नहीं, मुसीबत है तुम भी अपने 'हया को देख श्रावो, आज उसकी कुछ और हालत है बाप टोकता है-"मियाँ 'हया! लखनऊ जाकर अपनी शकल तो बदल श्राए थे अब जवान भी बदल दी। सोस को सुवन्नस बाँध गए ?' हया ने जवाब दिया--- “जी नहीं किवलः, मैंने तो उस्ताद 'जौक' की तकलीद की है। वह फरमाते हैं- सीने में सस होगी अड़ी दो घड़ी के बाद।" भला साहिवे बालम कब चूकने वाले थे ? कहने लगे.- भला हमारे मुकाबले में आपके उस्ताद का कलाम कहीं सनद हो सकता है ? वह जो चाहें लिखें । यह बताश्रो किले में साँस मुज़क्कर है या मुवन्नस ? बेचारे 'हया' मुसकरा कर खामोश हो गए।" (देहली का एक यादगार आखिरी मुशाअरह, एजुकेशनल बुक- हाउस, अलीगढ़, पृष्ठ ६४)। मिरजा फरहत उल्लाह बेग बी० ए०, देहलवी ने जो बाप-बेटे का शास्त्रार्थ सामने रखा है उसमें ध्यान देने की बात है 'सनद' । उर्दू की 'सनद' किसी 'उस्ताद' के पास नहीं चाहे वह बादशाह बहादुर शाह का उस्ताद 'जोक' ही क्यों न हो। नहीं, वह तो