पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२५

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राष्ट्रभाषा नागरी का भेद जानना अनिवार्य है। सो नगर के संबंध में कहा 'अन्येषामपभ्रंशानामेष्वेवान्तभावः' (अष्टादश पाद)। मार्कंडेय ने नागरापभ्रंश को अपभ्रंश भाषा का मूल कहा है और उसको महाराष्ट्रो एवं शौरसेनी में प्रतिष्ठित माना है। जहाँ तक पता चला है, माकडे ने ही नागर का सर्वप्रथम उल्लेख किया है अन्यथा नमिसाधु (हवौं शती) भी उपनागर, आभीर और ग्राम्य ही तक रह गए हैं। विचार करने से प्रतीत होता है कि हेमचंद्र (१२ वीं शती) के समय तक अपभ्रंश नागर का पर्याय समझा जाता था; तभी तो उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण में 'नागर' का नाम तक नहीं लिया और अपभ्रंश का पूरा 'अनु- शासन' कर दिया । हमारी धारणा है कि अपभ्रंश के लिये 'नागर' का व्यवहार बहुत पहले का है, कारण कि यदि ऐसा न होता तो नमिसाधु किस न्याय से उपनागर और ग्राम्य की कल्पना करते और स्वयं आचार्य हेमचंद्र अपभ्रंश के साथ ग्राम्यापभ्रंश की जोड़ लगा देते। कहते हैं- "अपभ्रंशभाषानिबद्ध सन्धिबन्धमब्धिमथनादि, ग्राम्यापभ्रंशभाषा- निबद्धावस्कन्धभीमकाव्यादि ।" ( काव्यानुशासन, अ०८) 'नागर' शब्द के आधार पर 'उपनागर' और 'अान्य' का विधान हुन्मा अथवा 'प्राम्य' के आधार पर नागर का, इसका समाधान अत्यंत सरल है, कारण कि हम पहले से ही जानते हैं कि "आभी- रादिगिरः' को काव्य में अपभ्रंश कहा गया है जिसका संकेत प्रकट ही गुर्जरामीरादि जातियों की ओर है। गुर्जर, आभीर, नागर आदि के इतिहास में पैठने को समय नहीं, अतः संक्षेप में जान लीजिए कि मानसरोवर के निकट हाटक स्थान से निकलकर