पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२४८

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राष्ट्रभाषा पर विचार मिल गया । सुनिए, किसी भाषामनीषी का कहना है और कहना है कितना सटीक- भारत के मुसलमान पाखिर उस अवस्था में श्रा जायँगे; जिसमें तुर्की और ईरानी मुसलमान पहुंच गए हैं। राष्ट्रीयता के साथ ही साथ तुर्की और ईरानियों में (और सुनते हैं, अफगानों में भी) स्वाजात्य-बोध और अपनी भाषा और संस्कृति पर इतना ही आत्मीयता-बोध बढ़ गया है, कि तुर्क लोग अपनी भाषा से अरबी शब्दों को, और ईरानी लोग फारसी भाषा से अरबी शब्दों को यथासंभव बहिष्कार करने के काम में दशचित्त हुए हैं । तेहरान का विश्वविद्यालय अाजकल "दारू-ल. उलूम नहीं है, वह अब "दानिश गाह" बन गया है। "बिस्मिल्लाहि- र-रहिमानि-नहीम" की जगह 'व-नाम-ए खुदावन्द-ए-बस्तीन्दः- श्रो मिहिरवान्' लिखते है। तुर्की में इस वक्त "अल्लाह' के स्थान पर तुर्की भाषा के पुराने ईश्वर-वाचक शब्द, यथा, तगरी' इदि, 'मुन्कू" पुनरुज्जीवित किये गये हैं, और नये कानून के मुताबिक, अरबी भाषा विदेशी होने के कारण उसमें श्राजान देना भो दंड योग्य अपराध गिना जाता है किसी मसजिद से अगर श्राजान देना हो, तो तुर्की-भाषा में ही देना पड़ता है, । "अल्लाहो अकबर" के स्थान पर लाईसेंस पास मुल्ला लोग तुर्की में पुकारते हैं-"तेरि उलूप्दिर" अर्थात् "ईश्वर श्रेष्ठ है।" भविष्य में शिक्षा की वृद्धि के साथ भारतीय मुसलमान का दृष्टिकोण भी बदल जायगा, संस्कृत शब्द तथा उनके अपने ही हिंदू , जैन और बौद्ध पूर्वजों से प्राप्त भारतीय संस्कृति के संबंध में उनका मानसिक वातावरण भी दूसरा हो जायगा । पुराने जमाने में भाषा के विषय में भारतीय मुसलमान इतने सहिष्णु नहीं थे। अरबी "अल्लाह और फारसी "खुदा" के साथ-साथ उत्तर भारत के मुसलमान "कार, साई, गुसाई" नादि