पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२४७

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हिंदुस्थानी का भवजाल २३७ और सच तो कहिए, राष्ट्र की दृष्टि और देश के हित से सदा आपको औरों के पास जाना ही है या कभी किसी को अपने पास लाना भी ! भाई ! सच्ची बात तो यही है। सदा उर्दू ने यही काम किया है। इस देश को रसातल में भेज ईरान-तूरान का गीत गाना ही उसका काम रहा है। अरे आप कहते क्या हैं ? उर्दू के द्वारा मुसलमानी देशों से नजदीक' का लगाव होगा ? हो सकता है। पर सच तो कहें, यदि यही बात थी तो पाकि- स्तान' के आदिद्रष्टा अल्लामा पंडित' इकबाल को "फारसी' की व्यों सूझी और क्यों उर्दू को तलाक दे फारसी के हो रहे ? एक दिन था कि फारसी यहाँ की राजभाषा थी और क्या ईरानी, क्या तूरानी, क्या मुगल, क्या पठान, क्या शेख, क्या सैयद, सभी मुसलमान और कुछ सरकारी या शाही हिंदू लोग भी फारसी का ही अभ्यास करते थे और फारसी के द्वारा ही बाहर के फिकों से भी बात-व्यवहार रखते थे । अँगरेजों के आने और फारसी के उठ जाने से देश में कुछ दिन उर्दू के द्वारा भी यह काम चला. पर विदेश में उसे कभी फारसी का स्थान नहीं मिला । इसी से अल्लामा इकबाल को फिर से, मुसलमानी राज्य स्थापित करने के विचार से, फारसी को अपनाना और उर्दू को 'चल दूर हट' करना पड़ा। परंतु पड़ोस' अब वह पड़ोस नहीं रहा। अब तो उस फारसी को फारस में भी स्थान मिलना कठिन हो गया। कारण, वह ईरानी नहीं, ईरान की 'उर्दू थी और ईरान की गुलामी में फूलीफली और चारों ओर अरबी के आधार पर बढ़ी थी। निदान, उसका भी स्वागत न हुआ और कभी के फारसी क्षेत्र की स्थिति आज यह हो गई कि कुछ पूछिए न । उर्दू की कौन कहे कुरान की पाक जवान को भी कूच का