पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२४४

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१६-हिंदुस्थानी का भँवजाल महात्मा गांधी और महामना मालवीय की भाषा-जीति में भेद यह था कि महात्मा जी 'हिंदुस्थानी' को जानते पर हिंदु- स्तानी' को मानते थे और महामना जी 'हिंदुस्तानी' को जानते पर मानते 'हिंदी' को थे। भेद क्या था, इसका रहस्य आगे खुलेगा । आज से ४० वर्ष पहले की बात है। १० अक्टूबर सन् १६१० ई० को काशी नागरीप्रचारिणी सभा की पावन भूमि में प्रथम हिंदी साहित्य संमेलन के अवसर पर अध्यक्षपद महामना मालवीय जी ने कहा यह था--- अापने ( डाक्टर ग्रियर्सन ने ) एक स्थान में लिखा है कि हिन्दी सन् १८०३ ई० के लगभग लल्लूलाल जी से लिखवाई गई। और भी लोगों ने इसी प्रकार की बात कही है। जो विदेशी हिन्दी के विद्वान हैं, वे तो वही कहते श्राए हैं कि हिन्दी कोई भाषा नहीं है । इस भाषा का नाम उर्दू है। इसी का नाम हिन्दुस्थानी है। ये लोग यह सब कहेंगे, किन्तु यह न कहेंगे कि यह भाषा हिन्दी है । (लजा) तो कुछ नहीं है, विचार की बात है। सज्जनों! ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित कितने अँगरेज अफसरों ने मुझसे पूछा था कि हिन्दी क्या है ? इस प्रांत की भाषा तो हिन्दुस्तानी है। मैं यह प्रश्न तुन दंग रह गया । समझाने से जब उन्होंने स्वीकार नहीं किया तब मैंने कहा कि जिस भाषा को हिन्दुस्थानी कहते हैं, वहीं हिन्दी है। अब श्राप कहेंगे कि इसका अर्थ क्या हुअा ? इसका अर्थ यह है कि न हमारी कही श्राप मानें, न उनको कही हम । इसमें न्यायपूर्वक विचार कीजिए। (प्रथम हिन्दी-साहित्य सम्मेलन काशी, कार्य-विवरण; पहला भाग, नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ-१०-११)।