पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२४१

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देशी सिकों पर नागरी नहीं, कभी बूढ़े और अन्धे शाहआलम की ओर से उनको उपाधि मिल गयी थी 'अलीजाह बहादुर' की, इसमें संदेह नहीं कि यही उस समय की सबसे बड़ी उपाधि थी और मिली सी थी बड़े उपकार के उपलक्ष्य में ही। परंतु जब दाता ही नहीं रहा तब इसका महत्व क्या? किंतु तो भी इस उपाधि का अभिमानी शिंदे वंश इसका स्वागत करता है, और इसको नागरी में ढाल कर मालो इतको भी नागरी बनाना चाहता है। देखिए, उसका ठप्पा है-'श्रीमाधवराव शिंदे बालीजा बहादुर शासक कोई भी बने पर वह कभी 'शिंदे बालीजा बहादर' को भूल नहीं सकता । मुगल प्रताद ही कुछ ऐसा था कि हिंदू सिकों पर अपनी छाप छोड़ गया। किंतु कहीं आप यह न समझ लें कि देश के सभी रजवाड़े मुगलभक्त हो गये थे और मुगल उपाधि पर ही लट्ट थे। नहीं, सिक्कों के अध्ययन से पता चलता है कि उनमें ईश-भक्ति का अभाव नहीं। वृंदी के हाडावंश की वीरता किससे छिपी है जो उसके हाड़ का बखान किया जाय ? देखिए उसी की वीरबत्ती छाप है . 'रंगेशपक्त बुंदीश राम सिंह। १६२३ संवत् का यह रंगेशभक्त, अपने रंग का कैसा रहा, इसे इतिहास जाने, पर रंगेशभक्ति का इसे अभिमान रहा, इसे आप भी जान गये और यदि भक्ति का रंग कुछ और भी देखना हो तो जयनगर (ग्वालियर ) के महाराज जयसिंह का सिक्का उठा लीजिए। उसपर आप को एक ओर दिखाई देगा---'श्री राधव परताप पवन पुत्र बल पाये के ।' और दूसरी ओर इसी भाषा और इसी लिपि में --"यह सिझ पर छाप महाराज जयसिंह को' का दर्शन होगा। भाषा में दोष देखने अथवा शुद्धाशुद्ध पर विचार करने का यह युग नहीं । भाषा ओर भेष जैसे तैसे बना रहा, यही बहुत है।