पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२३०

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२२० राष्ट्रभाषा पर विचार कारण हो सकता है ? नहीं। क्योंकि हम भली भाँति जानते हैं कि सरकार ने सरल और सुबोध शिष्ट भाषा को ही अपनाया है और इसीलिये बारबार इस बात का आग्रह भी किया है कि कच- हरियों और सरकारी दफ्तरों में वही भाषा बरती जाय जो फारसी से सर्वथा अनभिज्ञ, शिष्ट समाज के व्यवहार में हो अथवा उनकी समझ से बाहर की न हो और पारिभाषिक शब्दों को छोड़कर बिलकुल बोलचाल की हिंदुस्तानी यानी शिष्ट खड़ी बोली हो। साथ ही लिपि का प्रश्न भी हल कर दिया है। उसने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि लिपि के व्यवहार में जनता स्वतंत्र है। चाहे फारसी-लिपि का व्यवहार करे, चाहे नागरी-लिपि का प्रयोग, सरकार की ओर से इसमें किसी प्रकार की अड़चन न होगी। फिर भी देखने में यह आता है कि सरकारी कर्मचारी अपनी ओर से कभी-कभी कोई न कोई बाधा उठाते रहते हैं और अहलकारों के चकमें में आकर हाकिम भी कुछ वेढंगी और हिंदी के प्रतिकूल बातें कर जाते हैं । निदान जनता को विवश हो फिर उसी बहुरंगी उर्दू की शरण लेनी पड़ती और अपनी प्राण की कमाई को पानी की भाँति बहाना पड़ता है। केवल कागद पढ़ने के लिये जो पैसे ऐंठे जाते हैं उनकी मात्रा कुछ कम नहीं होती। अतएव यहाँ यह दिखाया जा रहा है कि सरकार नागरी को अपनाने के लिये तैयार है और उसके सभी कर्मचारी नागरी अपनाने को विवश भी हैं। उन्हें सरकार को विश्वास दिलाना पड़ता है कि वे नागरी जानते हैं। यदि यह सिद्ध हो जाय कि उन्हें नागरी का ज्ञान नहीं है तो अंत में उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़े। फिर भला उनमें इतना बल कहाँ कि जनता की लिपि की उपेक्षा कर उसके जन्मसिद्ध अधिकार की अवहेलना करें। पर यह तभी संभव है जब जनता दिलेरी और साहस के साथ अपने अधिकार के लिये अधिकरण