पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२२९

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व्यवहार में हिंदी २१६ बोल रही है और बातों में उलझाकर जनता की वाणी को सहसा मिटा देना चाहती है। इसके लिये उर्दू कहीं मेल-जोल की मिठाई बताई जाती है तो कहीं जिहाद करने के लिये 'नत्री की जबान ।' आये दिन रंग बदलना तो उसका धर्म हो गया है। पर सच्ची बात यह है कि वह जैसे-तैसे फारसी को पालना और उसके बंदों का पेट भरना चाहती है, कुछ हिंदियों को पार लगाना नहीं। यही कारण है कि जय कमी कचहरी की भाषा को सरल और सुबोध बनाने का प्रश्न छिड़ता है तब वी उर्दू चिटक जाती हैं और उसका मुँह खोलकर विरोध करती हैं। सरकार भी इस हो-हल्ला से तंग आकर अपनी जान बचाती और कचहरी की भाषा में कोई परि- वर्तन नहीं करती है ! गन सौ वर्ष इसके बोलते प्रमाण हैं । उनके आधार पर यह प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता है कि वास्तव में उर्दू क्या है और उसका प्राण कहाँ वसा है और सरकार क्यों जो कहती है उसे पूरा नहीं करती। जो हो, कोसने अथवा व्यर्थ के विवाद से काम न चलेगा। यदि प्रमाद से, हमारी भूल, वितंडासे, नाति से अथवा किसी भी लग्गू-बज्मू कारण से हिंदी की जगह उर्दू चालू कर दी गई और उसे फारसी की पटरी पर रपटने के लिये छोड़ दिया गया तो कोई बात नहीं। जो लोग उसके प्रेमी हैं, शौक से उसे गले लगाएँ, पर कृपया भूल न जाएँ कि इस देश की वाणी भी अभी इसी देश में जीवित है। घर-बाहर सनी जगह कर-करण से बोल रही है। सरकार ने उसी को महत्त्व दिया है। कचहरियों और दफ्तरों में उसी के शिष्ट रूप को स्थान मिला है। फिर जो लोग अपने कागदों में उसकी सच्ची प्रतिष्टा देखना चाहते हैं उनकी अवहेलना क्यों होती है और उन्हें फटकार किस बूते पर बताई जाती है ? क्या कायरता और कुपूतता के अतिरिक्त और भी कोई