पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२२१

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व्यवहार में हिंदी २११ भाषा फारसी दरबार से उठ गई और उसकी जगह अँगरेजी राजभाषा वनी! दिल्ली के मुगल दरवार में जो उर्दू ईजाइ हुई वही दीवानी के नाते कलकत्ता से फिरंगी दरबार को भी मोहने लगी। कितु फारसी के कारण जनता को जो कष्ट उठाना पड़ता था उसको देखकर कंपनी सरकार ने निश्चित किया कि फारसी कच- हरियों से विदा कर दी जाय; पर स्थिति की कठोरता के कारण उसे कुछ इधर-उधर करना ही पड़ा और फलतः आज तक वह उर्दू की ओट में कुछ इधर उधर बनी रही। उर्दू कचहरियों में सहसा कैसे कूद पड़ी, इसका कुछ पता इस आज्ञा से चल जाता है--- सदर बोर्ड के वाहनों ने यह ध्यान किया है कि कर काम फारसी ज़बान में लिखा-बढ़ा होने से सब लोगों को बछुत हजे पड़ता है और बहुत कलप होता है और जो कोई अपनी जो अपनी अपनी भाषा में लिख के सरकार में दाखिल करने पावेतो बड़ी बात होगी। सबको चैन बाराम होगा। इसलिए हुक्म दिया गया है कि सन् १२४४ को कुवार बदी प्रथम से जितका जो मामला सदर बोर्ड में हो सो अपना-अपना नवाल अपनी हिंदी बोली में और भारती के नागरी अच्चरन में लिल के दाखिल कर के डाक पर मजै और सबाल मान अन्रन में लिखा हो तौने बच्चरन में और हिंश बोलो में उस पर हुक्म लिखा जायना । (मिति २६ जुलाई सन्, १८३६ ई.)। हिंदी बोली के साथ पारसी अक्षरों का विधान हो गया, पर अभी किसी उर्दू का नाम नहीं आया। क्यों ? कारण जो हो, पर उधर फोर्ट विलियम कालेज में उसके मुंशी जम गए थे और 'हिंदोस्तानी' की ओट में उर्दू का प्रचार डटकर कर रहे थे। इससे हुआ यही कि इधर फोर्ट विलियम सरकार ने फारसी से ऊबकर