पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२१५

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हिंदुस्तानी-प्रचार सभा २०५ कुछ भी नहीं, और इसका फल निकलेगा 'संशयात्मा विनश्यति।' 'दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम ।' बस समझ लिया न? हाँ, वश्य ही संस्कृत के आधार पर राष्ट्रमापा खड़ी होगी। इसलिए नहीं कि वह यहाँ को धर्म-भाषा है । नहीं सच पूछिए तो कोई भी भाषा धर्म की भाषा नहीं होती। किसी भी भाषा को धर्म-भाषा के रूप में ग्रहण करना उसका उपहास करना है। संस्कृत का नाम हम धर्म के कारण नहीं प्रत्युत इतिहास, विचार और भाषाशास्त्र के कारण लेते हैं। संस्कृत का यहाँ को देश- भापाओं से जो संबंध रहा है उसको कौन नहीं जानता। वह किसी की माता है तो किसी की दाई। सभी उसी का दूध पीती हैं और दूध भी ऐला जो समस्त विज्ञान का दाता है। क्या आपसे यह भी कहना होगा कि आज समस्त संसार जो स्वतंत्र चिंतन कर रहा है वह सीधे उसी कुल की भाषाओं में व्यक्त हो रहा है जिसका प्राचीनतम ग्रंथ हमारे पास है और सौभाग्य से नहीं विचार से उसका नाम भी है बेद-ज्ञान । बस, आज का विज्ञान भी इसी कुल से शब्द लेता और बनाता है ! यूरोप ग्रीक और लैटिन की शरण लेता है और भारत संस्कृत तथा प्राकृत की। और प्रसन्नता तथा पते की बात तो यह है कि ग्रीक लैटिन तथा संस्कृत में प्रायः वही संबंध है जो यहाँ की समस्त देशभापाओं में। हाँ, द्रविड़- भाषाओं का भेद अवश्य उठ खड़ा होता है पर नाम कटाने के लिये नहीं प्रत्युत और भी शक्ति बढ़ाने के लिये। विविधता से शोभा बढ़ती है किंतु एकता में ही, अनेकता में नहीं। इतना सुनना था कि कहीं डाक्टर ताराचंद बोल पड़े- अरे ! हमें क्यों भूल रहे हो ? सो कहना है-भैया ! तुम्हें भी कोई