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राष्ट्रभाषा पर विचार २०४ शब्द तभी फारसी या अरबी से लिये जा सकते हैं जब उनमें अपनी कुछ नवीनता हो और अपने साथ अपने राष्ट्र का जीवन लिये हुए हों कुछ यह नहीं कि किसी विदेशी भाषा से किसी टकसाल में डाल लिये गए हों और लादे जा रहे हों भारत की राष्ट्रभाषा के हृदय पर अपना लहू छकड़ा चलाने के लिये। ऐसा आज किसी भी इसलामी या अनिसलामी देश में नहीं हो रहा है फिर यह उपद्रव यहीं क्यों हो ? रही अरबी-फारसी शब्दों की बात । सो लेखक और वक्ता की इच्छा। वह जैसी भाषा का चाहे प्रयोग करे। यदि उसमें इतनी क्षमता नहीं कि वह अपने सामाजिकों को समझ सके तो आपकी अनोखी पगडंडी पर चलकर वह जनता का मैदान नहीं मार सकता। उसको अपनी भाषा में लिखने दीजिए । शक्ति होगी जीवित रहेगा। अशक्त होगा मर जायगा। यही तो यहाँ का क्रम है ? फिर इसकी चिंता क्या ? विश्व यदि सपाट हो जाय तो उसका सारा आनंद जाता रहे। बस, वाणी के विधाता न बनो उसे स्वतंत्र अपने पाट पर बहने दो । शब्द की परख कवि को होती है किसी कोश को नहीं । कोश काम चला सकता है राष्ट्र नहीं । राष्ट्र कभी नहीं उस कोश से बली हो सकता जो उसका अपना नहीं। उधार लेना पतन है पचा लेना पराक्रम और पकड़ जाना विनाश । बस, लेने की बात छोड़ो पचाने का अभ्यास करो, और , आए हुए शब्दों को ऐसा अपनाओ कि फिर कभी उन्हें भागकर कहीं और जाने की सुधि न रहे और सर्वथा अपने अनुशासन में आ जायँ। अरे ! बड़े बड़े पंडित बता नहीं सकते कि अमुक शब्द का इतिहास अमुक है तो किसी हिंदुस्तानी छैला की बात ही क्या जो भाषा के क्षेत्र में सदा यही पढ़ेगा कि यह भी नहीं, वह भी नहीं। विश्वास रखिए इसका परिणाम होगा