पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२१३

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न पा सके हिंदुस्तानी प्रचार सभा २०३ कहीं तुममें इसलाम भी है। इसलाम के किस आदेश से तुम ऐसा कर रहे हो ? देखो लगभग १३०० वर्ष से कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत इसलाम इस देश में चला आ रहा है और लगभग ६०० वर्ष तक यहाँ का प्रमुख बल भी उसी के हाथ में रहा है। इतने वर्षों में जो इसलामी शब्द यहाँ की भाषा आज वे क्यों लाए जा रहे हैं ? क्या उनकी कोई तालिका भी किसी मुसलमान के पास है ? अरे ! भाई ! जिन अरबी शब्दों में इसलाम था उनका प्रचार इसलाम के साथ हो गया अब तुम उस काफिरी भाषा के चक्कर में क्यों पड़े हो जिसमें इसलाम नहीं अरब की शान है। और यदि चाहते हो तो उसे इसलाम के भीतर ही रक्खो। निरीह जनता पर उसे क्यों लादत्ते हो ? है कुछ इसलामी अल्लाह का आदेश जो तुमसे ऐसा कुछ कराता है ? नहीं, अरबी के आधार पर हिंदुस्तानी चल नहीं सकती और न उससे एक भी नया शब्द गढ़ने का उसे अधिकार है। वैसे महात्मा गांधी और अल्लामा सुलैमान की इच्छा। 'फारसी' के विषय में भी हमारा यही मत है और यही मत होगा विश्व स्वतंत्र मननशील व्यक्तियों का मत । फारसी इतने दिनों तक यहाँ की राजभाषा रही। उससे जो कुछ पाने का था आ चुका । अब कोई कारण नहीं रहा कि हम एक मी नया शब्द उससे बनाएँ । हाँ, बनाएँ, गढ़े नहीं। कारण यह कि भाषाशास्त्र की दृष्टि से ईरानी का तो यहाँ की भाषाओं से कुछ लगाव है पर अरवी का तनिक भी नहीं। अरबी तो किसी और वंश की भाषा है। हाँ, यहाँ, इतना और जान लें कि प्रश्न पुराने शब्दों का नहीं, नये शब्दों के लेने का है। सो हमारा कहना है कि नये