पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२१२

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राष्ट्रभाषा पर विचार अपने आप को 'कफी' कहें वा 'तिरिया' किंतु क्या हमारी इस स्वदेशी बोली में हमारे मुनित्राषि अथवा आचार्य भी 'दत्तातिरिया' ही कहलायेंगे ? महात्मा गांधी इस हिंदुस्तानी की अद्भुत व्याख्या कर सकते हैं परंतु विश्व उनका साथ नहीं दे सकता । भला कौन ऐसा मूढ़ होगा ऋषि दत्तात्रेय' को 'दत्ता- तिरिया' के रूप में ग्रहण करेगा और एक अवतार का इस प्रकार अपमान करेगा? 'मामा' 'चाचा' और 'दत्तातिरिया' का प्रसंग उस विचार से छोड़ा गया है कि आप प्रकट रूप में देख सकें कि हिंदी-उर्दू का संघर्ष केवल अरबी-फारसी और संस्कृत शब्दों का संघर्ष नहीं है। नहीं, यह तो संघर्ष है प्रवृत्ति अथवा ठसक का । जो लोग बात बात में भाषा के प्रसंग में केवल शब्दों का नाम लेते और राष्ट्रभाषा के प्रसंग में संस्कृत के साथ अरबी का नाम भी जोड़ देते हैं वे भाषा के क्षेत्र में या तो निरे बुद्धू हैं या अद्भुत प्राचार्य । भला सोचिए तो सही अरबी का यहाँ की किसी भी खड़ी पड़ी सड़ी-गली, चलती-फिरती भाषा से कहीं का कोई भी जन्मजात सहज संबंध है। माना कि वह यहाँ के वर्ग विशेष की पोथी की भाषा है और उस पोथी के मूल में पैठने के लिये उसकी भाषा का जानना अनिवार्य है, पर इसी के आधार पर यह भी कैसे मान लें कि उसका भी इस भूमाग पर वही अधिकार है जो संस्कृत का । नहीं ऐसा हो नहीं सकता। वह भले ही भारत की राजभाषा बन जाय पर भारत की राष्ट्रभाषा तो वह होने से रही। और कहें तो सही राष्ट्रभाषा के प्रसंग में आप क्यों उसका नाम लेते हैं। क्या मुसलमान होने के कारण ? अच्छा, लो सुनो और कहो तो सही कि तुम निरे मुसलमान ही हो कि .