पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२१०

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राष्ट्रभाषा पर विचार तो नहीं किंतु वह प्रचलित होगी 'तालीम' के द्वारा ! है न महात्मा गांधी का यही पक्ष ? सौभाग्य की बात है कि आज से ठीक २०० वर्ष पहले जैसे ईरानी-तूरानी-रक्षा के लिये उर्दू वनी थी वैसे ही आज उर्दू की रक्षा के लिये हिंदुस्तानी बन रही है। अंतर केवल इतना है कि उस समय यह कार्य हँसोड़ अमीन रखाँ और बसी नूरबाई के द्वारा हुआ था और आज यह कार्य हो रहा है महात्मा गांधी और किसी दिव्य देवी के द्वारा। महात्मा गांधी कुछ भी करते रहें पर इतना तो जान ही लें कि 'उर्दू में 'हुरुफ की कमी-बेशी के कारण भी बहुत से प्रचलित शब्द 'खराद' पर नहीं चढ़े और देश में रहते हुए भी उर्दू से निकाल दिए गए । महात्मा गांधी बड़े मधुर शब्दों में लिपि का प्रश्न पी जाते हैं और समझते हैं कि शंकर जी ने हलाहल पान कर सारा अमंगल दूर कर दिया पर जानते इतना भी नहीं कि आगे हो क्या रहा है। सुरा और सुधा का बँटवारा हो कैसे रहा है ? क्या हिंदुस्तानी की भोहिनी' इसीलिये बनी है ? जी, सुधा का तो पता नहीं पर सुरा का परोसा सामने आ रहा। अच्छा यही समझिए कि एक का 'देव' दूसरे का दानव' है। आज अपना संहार अपने तो कर रहे हैं ! भला मुहम्मद अली जिन्नाह और मौलवी अब्दुल हक के पिता किस विलायत से आए थे जो आज सर्वथा हिंदी होते हुए भी हिंदी का विरोध कर रहे हैं और उस उर्दू को ले रहे हैं जिसमें उनका तथा उनके पूर्वजों का नाम धरा गया है ? कैफी' ? पंडित दत्तातिरिया कैफ़ी ही तो पूछ रहे हैं ? अजी ! बूढ़ा सुग्गा राम राम नहीं पढ़ता-सो भी बचपन का कुछ और ही पढ़ाया हुआ । सुनिए न, वह क्या बोलता है। यही न ? मामा और चाचा यह दो रिश्तों के नाम पहले से रायज थे।