पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२०७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कह जाती है- हिंदुस्तानी-प्रचार सभा है ही कहाँ? हिंदी ठिठक कर सरल भाव और द्राक्षा और दाडिम कहाँ से किसके साथ आए ? क्या 'द्राक्षासव' का नाम आपने कभी नहीं सुना और नहीं सुना कहीं दाडिम का नाम राजपूताने में घूमते समय ? यदि हाँ, तो आप आज किस मुंह से कह रहे हैं कि अंगूर और अनार के लिये यहाँ अपना कोई शब्द नहीं और श्राए भी यहाँ अंगूर और अनार मुसलमानों के साथ ही। मुसल- मानों के पहले अफगानिस्तान पर किसका शासन था बता सकते हैं और जानते हैं कुछ वहाँ के त्रिलोचनपाल को ? आप कुछ भी कहें पर आप को मानना ही होगा कि आपने अपनी हिंदुस्तानी के प्रचार का जो महात्मा गान्धी को साधन बनाया है वह सचमुच स्वराज्य के लिये, राष्ट्रोद्धार अथवा लोक-कल्याण के लिये कदापि नहीं। और यदि नहीं; तो आप ही कहें कि आप कहाँ के कैसे पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी हैं जो अपने देश के विषय में जानते इतना भी नहीं और बाजते फिरते हैं अल्लामा १ नहीं; अवश्य ही दाल में कुछ काला है, दिमाग में न सही। शिवली के जाल से मुक्त हो तनिक देखिये तो सही ! आप लिखते हैं- घोड़े की सवारी कहाँ न थी। मगर जब मुसलमान यहाँ आए तो लगाम, जोन, तंग, खूगीर, रकाब, नाल, नुक्ता, जुल, जिसका खराबी झोल है, सईस, सवार, शहतवार, ताजियाना, कमची, सब अपने साथ लाए ( नुक्शे सुलैमानी, पृ० २६-३०) माना, आपका कहना सोलहो आना सच है। पर कृपाकर यह तो कहें कि यदि यही स्थिति थी तो क्या जादू के बल पर लोग 'घोड़े की सवारी करते थे १ क्या बिना लगाम के किसी को किसी घोड़े पर सवारी करते देखा है और कभी बिहार में रहते