पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२०६

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राष्ट्रभाषा पर विचार के 'सोमशर्मा (शेखचिल्ली) नहीं। नहीं, हमारा कहना तो यही है कि इस हम नहीं और तुम नहीं से स्वराज्य नहीं सध सकता। हाँ, किसी का राज्य अवश्य ही जम सकता है। कहते और हमारे मुसलिम देवता अल्लामा सुलैमान साहब कहते हैं कि यहाँ तो कुछ था ही नहीं जो कुछ दिखाई देता है सभी मुसलमानों के साथ आया है। मुसलमानों के साथ इस देश में आया तो कोई बात नहीं पर इसलाम के साथ संसार में तो नहीं आया जो मुसलमान को इतना महत्त्व दिया जा रहा है ? पर नहीं, इससे सैयद साहब को कोई प्रयोजन नहीं। उन्हें तो बस ले-दे के यही सिद्ध करना है कि कुछ यहाँ फला-फूला और बता-ठना दिखाई देता है वह सब मुसलमानों का प्रसार है। परंतु उनके इस मार्ग में सब से बड़ी कठिनाई है भाषा और विशे- घतःशब्द की । इतिहास को तो आग लगाकर चाटा जा सकता है और मुसलमान लेखकों के प्रताप से कुछ कर दिखाया भी जा सकता है किंतु जब तक हिंदी शब्द जीवित हैं तब तक ऐसा हो नहीं सकता। सैयद साहब ने कहा-अंगूर और अनार मुसल- मानों के साथ इस देश में आये। हिंदुस्तानी ने कहा- ठीक । यदि ऐसा न होता तो यहाँ अपना भी तो कोई नाम होता है परंतु हिंदी यह दिवांधता सह नहीं सकती। वह आगे आती और बढ़ कर सैयद साहब से पूछ बैठती है-कहिए अल्लामा साहब! आपने पढ़ा क्या है और सुना क्या है ? सैयद साहब तपाक से आगे बढ़त्ते और अरबी, फारसी, उर्दू आदि का नाम सुना जाते हैं । वह सीधा सा प्रश्न करती कुछ यहाँ का भी। सैयद साहब मुसकरा कर कह देते-हाँ, यहाँ का भी। मुसलमानों ने यहाँ के वारे में बहुत कुछ लिखा है और उनके अतिरिक्त यहाँ का इतिहास