पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२०५

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हिंदुस्तानी-प्रचार सभा १९५ चाणी में अरब से कहो। तूरान ने कहा तूरानी से कहो, पर 'मुससलान (?) ने कहा उर्दू में हिंदी से कहो। उर्दू का अर्थ ? मुसलिम देवता 'नोमानी भक्त श्री सैयद सुलैमान नदवी उठे । उर्दू की दुर्बलता को देखा। तर्क की शरण ली और न्याय की प्रेरणा से कह दिया जब इस देश का नाम हिंदुस्तान है तब यहाँ की भाषा का नाम भी हिंदुस्तानी ! और काम ? 'हिंदुस्तानी नहीं; हिंदू और मुसलमान का मेल । सो कैसे ? यहीं न कि संस्कृत और अरबी के मोटे मोटे शब्द छोड़ दो और समय पड़ने पर अरवी, फारसी, संस्कृत और अंगरेजी से शब्द लो? कितनी सीधी बात है और कितने सीधे ढंग से चारों ओर घूम घूमकर कही जा रही है। पर वस्तुतः इसका कुछ अर्थ भी है ? हाँ, साथ ही एक और बखेड़ा भी खड़ा किया जा रहा है। कहा और बड़े विचार से कहा जा रहा है कि समस्त उत्तर भारत में जो भाषा बोली जाती है उसी में रचना करो। जनता की वाणी को अपनाओ । एकसाथ एक हिंदुस्तानी के लिये इतने भमेले उठ खड़े होते हैं कि किसी विवेकशील व्यक्ति के लिये यह समझना ही कठिन हो जाता है कि यह कोई रमझल्ला हो रहा है या सोखाई । गोरख- धंधा तो हम इसे कह नहीं सकते । निष्कर्ष यह कि 'माशूक्त की कमर' की भाँति हिंदुस्तानी के विषय में जो कुछ कहो सब ठीक है। अथवा 'अलख लखी नहिं जाई' को ही ठीक समझो परंतु इतना जान लो कि यह कमर कसकर कुछ कर दिखाने का मार्ग नहीं। हाँ, 'दिल बहलाने के लिये 'गालिब' खयाल अच्छा है।' अच्छी बात वही तो होती है जो हो न पर जिसके होने की कल्पना उछलती रहती हो ? हम नहीं कहते हमारे देश में हिंदुस्तानी