पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२०४

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१६४ राष्ट्रभाषा पर विचार है कि इसी से तो 'हिंदुस्तानी' का नाम लिया जा रहा है, हिंदी का नहीं। निवेदन है, यही तो भूल हो रही है। उपाय नहीं। आप कुछ भी कहे पर विवेक इतिहास खोलकर कहेगा यही कि यह ठगी का सौदा ठीक नहीं । जो 'हिंदी' को नहीं मानता वह 'हिंदु- स्तानी' को कदापि न मानेगा। यदि मेल की बात पक्की होती तो उर्दू कभी बनती ही नहीं। बनी बनाई हिंदी को छोड़कर जब उर्दू गढ़ी गई तब भी देश के सामने वही प्रश्न था जो आज है। उर्दू बनी, बढ़ी, फली और फूली पर उसका सोता सूख गया । आज ईरानी' और तूरानी की शक्ति मारी गई । ईरान स्वयं खरा ईरानी बन गया और तूरान खरा तूरानी। अरबी के दिन भी फिरे तो अरबों में ही। आज न अरब में कोई ऐसी संस्था बन रही है और न ईरान-तूरान में जो अरबी का प्रचार करे और मुसलिम मात्र को देशकाल से मुक्त समझे। परंतु हमारे देश में हो क्या रहा है ? अरबी और फारसी का आग्रह ? क्यों ? इस देश में मुसलमान जो रहते हैं ? वर्धा के वीर व्याख्यानों में क्या कहा गया ? यही न कि हिंदी और उर्दू को मिलाने का प्रयत्न करो। ठीक, कितनी बढ़िया बात है ! पर कैसे ? बस इसी को न पूछो। बढ़िया बात वही होती है जो कहने की है, करने की नहीं। कहने को तो बड़े-बड़े वक्ताओं ने कह दिया कि सरल भाषा का प्रयोग करो पर किसी ने नहीं कहा कि सरल बनो। पोथी को छोड़ो और प्राणी को पकड़ो । महात्मा बुद्ध पोथी लेकर लोकवाणी में प्रचार करने नहीं निकले थे। पोथी बनी और लोकवाणी गई। मुहम्मद पोथी लेकर इसलाम का प्रचार करने नहीं निकले थे। पोथी बनी और जनता की बानी मारी गई। अल्लाह ने कहा-ऐ मुहम्मद! अरब की