पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९८

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राष्ट्रभाषा का स्वरूप अधिकार है। परंतु जब 'हिंद' के भीतर उनकी भी गणना है और उनके पूर्वज सदा से उसके अभिमानी हैं तब अपने आपको 'हिंदी' से अलग न करें इसी में उनका तथा लोक का कल्याण है। संक्षेप में हम जानना यह चाहते हैं कि 'संमेलन' किसी ऐसे जन- पद के कार्य में सहयोग क्यों दे जो अपनी भाषा को उठाकर हिंदी के समकक्ष लाना चाहता हो और आर्यावर्त की समभूमि में विषमता का बीज बोना चाहता हो । नहीं, प्रत्येक जनपद का यह पावन कर्तव्य है कि वह 'संमेलन' से अपनी माँग स्पष्ट करे और अपनी निश्चित धारणा के साथ वह संघटन करे जिससे स्थिति को समझने और सुलझाने में सुविधा हो। रही स्वयं 'संमेलन' की बात, सो वह बराबर जन-साहित्य के प्रकाशन में लगा है और किसी भी जनपद के किसी भी अध्ययन को प्रकाशित करने को सदा कटिबद्ध है। संमेलन किस प्रकार जनपदों के अध्ययन में योग दे सकता है और जन्मभाषा को सुशील बना शिष्ट भाषा के साथ बढ़ा सकता है इसका निर्णय हिंदी जनपदों की विचारशीलता पर निर्भर है। आशा है, भाषाशास्त्र के मर्मज्ञ और मानवता के पुजारी समय रहते इस विकट प्रश्न पर ध्यान दे किसी ऐसे मार्ग का विधान करेंगे जो 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई' का विधायक होगा।