पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९७

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संमेलन और जनपद भाग्यवश आज यदि 'डिंगल' स्वयं पिंगल' से दूर भागना चाहता है तो साहित्य के क्षेत्र में भी आज वह वही भूल करना चाहता है जो राजनीति के क्षेत्र में सदा से करता आ रहा है। उसे ध्यान रखना होगा कि भाषा दाय के रूप में नहीं मिलती उसे तो प्रत्येक प्राणी को कमाना अथवा अपने प्रयत्न से प्राप्त करना पड़ता है। बालक सहज में ही ऐसी वाणी को अपना लेता है जो उसके पड़ोस में होती है और उसके समाज वा कुटुंब में वराबर बरती जाती है। अतः बच्चे की बात उटा किसी बनी बनाई बात को बिगाड़ना सूझ नहीं, समझ नहीं और चाहे जो हो। जिसे अपनी जन्मभाषा की अधिक ममता हो वह उसे जितना चाहे उगा ले पर उसे भी इतना तो मानना ही होगा कि वह विश्व का प्राणी नहीं, राष्ट्र के किसी कोने का पतंग है। यदि वह संसार में अपना जौहर दिखाना चाहता है तो उसे जन्मभूमि से उभर कर कर्मभूमि में आना ही होगा जन्मभाषा से निकलकर कर्मभाषा में धंसना ही होगा । आज के इस प्रलयंकारी युग में भी जो हिंदी, हिंदी को कर्मभाषा नहीं समझता वह निश्चय ही ब्रह्मा द्वारा ठगा गया है। उसका विधि वाम हो गया है। "बुंदेली', 'कन्नौली', 'बांगरू' आदि भी यदि स्वतंत्रता का बिगुल बजाकर अपना-अपना स्वराज्य स्थापित करना चाहती है तो चार दिन के लिये कर लें; पर कृपया भूल न जाय कि किसी विशाल साम्राज्य से भी उन्हें कुछ लेना-देना अवश्य है। हमारी समझ में तो यह बात नहीं आती कि इन्हें भी इतनी अपनी-अपनी क्यों पड़ी है, इनका तो हिंदी से भात-भोज का नाता और सहज संबंध है ? हाँ, 'मैथिली' और 'मुल्तानी' की गति कुछ न्यारी अवश्य है। वे चाहें तो हिंदी की 'तीरभुक्ति बनी रहें अथवा अपना स्वतंत्र झंडा खड़ा करें । कुछ भी करें उन्हें बह जन्मसिद्ध