पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९५

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१५-संमेलन और जनपद एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय । जो तू सींचे मूल को, फूलै फलै अघाय ॥ मूल को सींचने के विचार से हिंदी-साहित्य संमेलन के गत अधिवेशन ( हरिद्वार ) में जनपद संबंधी जो प्रस्ताव स्वीकृत हुआ उसकी मान्यता चाहे कुछ भी रही हो पर लोग उसका संकेत भाषा मात्र समझते हैं और कुछ लोग उससे यह अर्थ निकालना चाहते हैं कि 'संमेलन प्रत्येक जनपद की भाषा तथा साहित्य को प्रोत्साहन दे, उसे हिंदी के समकक्ष करे; परंतु ध्यान देने की बात है कि क्या 'संमेलन' इस प्रकार की उदार चेष्टा से अपना महत्त्व बढ़ा सकता है और उसके द्वारा हिंदी की यथार्थ सेवा हो सकती है। कहना न होगा कि हिंदी की व्यापक वृद्धि पर कुठाराघात की यह प्रवृत्ति उनकी ओर से हो रही है जो भाषा की मूलशक्ति से सर्वथा अपरिचित और मातृभाषा के ममता भरे प्रवाह में बह जानेवाले जीव हैं। सच पूछिए तो मातृभाषा में माता की जो दुहाई दी जाती है वही जन्मभाषा के कुछ प्रतिकूल भी पड़ जाती है। मातृभाषा के पुजारी यदि ध्यान से देखें तो उन्हें भी सहसा स्पष्ट हो जाय कि स्वयं माता भी तो अपनी मातृवाणी पर आरूढ़ नहीं रहती और पतिलोक की पतिवाणी का अनुसरण करती है । अर्थात् माता तो स्वयं द्विभाषिणी होती है । उसकी नैहर की भाषा नैहर में ही छूट जाती है और ससुराल में आते ही ससुराल की भाषा सीखनी होती है। फिर मातृभाषा के उपासक मातृभाषा को