पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९२

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राष्ट्रभाषा पर विचार प्रस्ताव से हिंदीप्रचारकों को बड़ा लाभ हुआ है। इससे यह स्पष्ट हो गया था कि श्री टंडन जी जिस भाषा को राष्ट्रभाषा मानते हैं उसका नाम हिंदी भी है, हिंदुस्तानी भी। कांग्रेस इस वक्त देश की प्रधानतम राष्ट्रीय संस्था है और राष्ट्रभावना का प्रचार करने वाली है, उसी की भाषा राष्ट्रभाषा हो सकती है, इसमें कोई शक नहीं। टंडन जी भी उसके एक प्रमुख नेता हैं इसमें भी कोई शक नहीं ! हिंदुस्तानी शब्द की जो व्याख्या इस समय टंडन जी ने अबोहर में कराई है, वही व्याख्या उनके मन में कानपूर कांग्रेस के समय भी रही होगी। हिंदुस्तानी शब्द का प्रयोग करते समय उन्हें अवश्य मालूम हुआ होगा कि उस भाषा के लिये नागरी और फारसी दोनों लिपियाँ काम आती हैं। अब तक हजारों व्यक्ति जो इन पंद्रह सोलह वर्षों राष्ट्रभाषा के प्रचार मे लगे हुए हैं, यही समझते आ रहे हैं कि राष्ट्रभाषा के दो नाम हैं -एक हिंदी और दूसरा हिंदुस्तानी । यही भाषा जब फारसी लिपि में लिखी जाती है तब उर्दू कहलाती है। इसी को ध्यान में रखकर राष्ट्रभाषा के प्रचार करनेवाले व्यक्तियों, जो प्रधानतया कांग्रेसवादी हैं, व संस्थाओं ने संमेलन का नेतृत्व स्वीकार किया। अगर इस नई व्याख्या को अपने को हिंदी भाषाभाषी समझनेवाले सर्व सम्मति से मान लें और सम्मेलन अपनी सारी प्रवृत्तियाँ उनके लिये ही सीमित कर ले तो इसके लिये विवाद नहीं हो सकता, लेकिन सारे राष्ट्र पर यह १६- किंतु कांग्रेस सर्व-तुलम राष्ट्रलिपि की घोषणा कर सकेगी इसमें पूरा संदेह है। अभी तो उसका सारा प्रयत्न 'दो नाव पर चढना' को ही चरितार्थ कर रहा है !