पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९१

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राष्ट्रभाषा व संमेलन १८१ अपना दाम चला लेगा ? यू० पी० के, पंजाब के शहरों व देहली में जो कोई जाय वह सबकी भाषा समझ सकेगा और अपनी भाषा में सबको समझा सकेगा? आपस के अंत- प्रांतीच व्यवहार के लिये सिर्फ नागरी लिपि ही पूर्णतया काम देगी इसमें संदेह नहीं है। प्रत्येक भाषाभाषी को शिक्षा के नाते अपनी मातृभाषा, संस्कृत और अंगरेजी सीखनी पड़ती है। सुविधा के लिये अपने पड़ोस की एक भाषा सीखना भी जरूरी हो जाता है। राष्ट्रीयता के नाते राष्ट्रभाषा भी सीखनी पड़ती है। इतनी भाषाओं का बोझ उस पर कम नहीं है । अगर वह राष्ट्रीयता एकांगी हो और अपूर्ण हो तो इस बोझ को ढोने में वह अवश्य हिचकिचाएगा । वह चाहेगा कि उसे राष्ट्रभाषा के द्वारा सञ्ची व पूर्ण राष्ट्रीयता मिले, राष्ट्रभाषा उसे सौ फी सदी राष्ट्रसंदेश सुनाये। अगर संमेलन १८ अपनी तरफ से यह काम नहीं कर सकेगा तो उसे दूसरी संस्थाओं का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा या अपनी अलग संस्था बना लेनी पड़ेगी। कांग्रेस ने अपने कानपुर के सन् १९२५ के अधिवेशन में यह निश्चय किया था कि कांग्रेस की भाषा हिंदुस्तानी मानी जायगी और कांग्रेस की सारी कार्रवाई हिंदुस्तानी में ही होगी। सयोग और सौभाग्य की बात है कि इस प्रस्ताव को हिंदी-साहित्य सम्मेलन के प्रधान कर्णधार श्री पुरुषोत्तमदासजी ने पेश किया था। इस १८–'सम्मेलन' इसी से तो उस राष्ट्रभाषा और उस राष्ट्रलिपि का प्रचार करना चाहता है जो शीघ्र ही सर्वसुलभ और सर्वसुबोध है । फिर भी यदि किसी को दो दो भाषाओं और दो दो लिपियों की चाट लगे तो वेचारा सम्मेलन क्या करे !