पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६ राष्ट्रभाषा कुछ दोनों को गड्डमड्ड करके नहीं। तनिक सोचने, समझने और विचार करने की बात है कि भारत में क्या और अन्यत्र के इस- लाम में क्या और क्यों हो रहा है ? विना विचारे राष्ट्रभाषा की कोटि में उर्दू क्या फारसी-अरवी को ला खड़ा करना मज- हब नहीं कुफ्र है, इसलाम नहीं उपद्रव है। यदि दीन का दर्द है तो दीन की दृष्टि से उस पर विचार हो और सब प्रकार से उसका पालन भी हो। पर यदि दुनिया की चाल है तो उसकी गति को परखो और व्यर्थ में राष्ट्रभाषा के मार्ग में खाई न खोदो। याद रखो, उर्दू को बने अभी २०० वर्ष से अधिक नहीं हुए। कहने को चाहे कुछ भी कहो पर सच्ची और दोटूक बात तो यह यहाँ ( शाहजहानाबाद) के खुश बयानों ने मुस्तफिकर होकर मुताहिद जवानों से अच्छे अच्छे लफ्ज़ निकाले और बाज़ इबारतों और अल्फाज़ में तसह करके और जवानों से अलग एक नई ज़बान पैदा की जिसका नाम उर्दू रखा । (दरियाए लताफ़त अंजु- मने तरक्कीए उर्दू, दिल्ली, प्रारम्भ ) सैयद इंशा जैसे भाषाविद् ने 'दरियाए लताफत' जैसी सनदी किताब में उर्दू के विषय में जो कुछ लिखा है उसे उडू के इति- हासलेखक जान-बूझकर पी गए और उसे ऐसा पचा लिया कि आज उसकी गंध तक नहीं आती। परंतु यदि खाज की आँख से देखा और उर्दू के कारनामों का लेखा लिया जाय तो स्थिति आपही स्पष्ट हो जाता है। सैयद इंशा की दरियाए लताफ़त सन् १२२३ हि० ( १८०८ ई०) में रची गई और रची गई लखनऊ १-साधुवकाओं । २-एकमत । ३-गिनी हुई। ४-हस्तक्षेप ।