पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८९

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राष्ट्रभाषा व संमेलन स्थान है, न अनुदार सांप्रदायिकता के लिये ही। समूचा भारत अपने प्रांत-भेदों, वर्ग-भेदों, भाषा-भेदों व विचार-भेदों को लेकर उसमें आ जाता है। जब राष्ट्रभाषा प्रचार के उद्देश्य के संबंध में उनके विचार कहीं कहीं।४ संदेह की दृष्टि से देखे जाने लगे तब उन्होंने इंदौर के संमेलन में उसकी व्याख्या कराई। और वह व्याख्या सर्वमान्य (१) और कूलंकर्ष थी। अब उस व्याख्या को बदलकर संमेलन ने अपनी भाषानीति की अबोहर संमेलन में जो व्याख्या की वह सर्वमान्य नहीं कही जा सकती; न उसमें राष्ट्रीयता व राष्ट्रभाषा का कूलंकर्ष रूप ही मिल सकता है। इंदौर संमेलन में लिपि प्रश्न पर भी प्रकाश डाला था। हिंदी को राष्ट्रभाषा और उसकी लिपि को नागरी और उर्दू स्वीकार किया; यद्यपि संमेलन की शक्तियाँ अधिकतर नागरी के प्रचार करने में लगती आई हैं। उर्दू लिपि के प्रचार में या जानने में उनको कोई आपत्ति में नहीं थी। इसका यह कारण है कि सारे पंजाब में आज भी उर्दू लिपि ही चलती है और यू० पी० की १४-इस 'कहीं कहीं का कच्चा चिट्ठा जन सामने आ गया तब 'संमेलन' को अपनी हिमालवी' भूल का पता चला और उतने अपनी नीति को स्पष्ट कर दिया। उघर महात्मा जी के सब कुछ कहने पर भी वह संदेह दूर न हुश्रा बल्कि और भी हड़ होता गया। और यदि महात्मा जी की यही नीति ऐसी ही रही तो उसकी सोर पाताल में खिल जायगी और फिर एकता का प्रश्न सीधे परमात्मा के हाथ में पहुँच जायगा। १५-यह कथन भी भ्रमपूर्ण है। पंजाब में नागरी और गुरुमुखी का भी प्रचार है । हाँ, सरकारी कामकाज में फारसी लिपि ही बरती जाती है, नागरी नहीं। रही युक्तप्रांत की बात, सो यहाँ सरकार की