पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८८

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राष्ट्रभाषा पर विचार है कि उसके भिन्न भिन्न स्वरूप और भिन्न भिन्न शैलियाँ और भिन्न भिन्न धाराएँ समूचे राष्ट्र की संपत्ति समझी जाय । परस्पर- विरोधी न मानी जाय । उसके व्यापक व प्रचलित स्वरूपों व शैलियों का बेरोक टोक अध्ययन करने का प्रोत्साहन दिया जाय। जो संस्था यह कार्य दिल खोलकर बिना किसी बंधन के करेगी और जो व्यक्ति इन विचारों का साथ ही इन स्वरूपों . का प्रचार करेंगे वे ही पूरे राष्ट्रीय कहलायेंगे । अन्यथा उनकी राष्ट्रीयता सीमित रह जायगी। राष्ट्रभाषा का प्रश्न उत्तर भारतीयों के लिये एक अर्थ और दूसरे प्रांतों के लिये दूसरा अर्थ रखता है। जब महात्मा गांधी जी ने हिंदी का राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रचार शुरू कराया तब उनके सामने विशुद्ध राष्ट्रीयता को छोड़कर और कोई दूसरा उद्दश्य नहीं था। उनकी राष्ट्रीयता में न संकुचित राष्ट्रीयता के लिये १३-हम उर्दू क्या अरबी और फारसी के उस साहित्य को भी राष्ट्र की संपत्ति समझते हैं जिसकी रचना इस उपजाऊ भूमि में हुई है। हमें श्री मुहम्मदअली जिनाह का भी ठीक उसी प्रकार अभिमान है जिस प्रकार महात्मा गांधी का । हम दोनों को राष्ट्र की संपत्ति समझते हैं 1 परंतु क्या हम इसी नाते उन्हें परस्पर-विरोधी नहीं मानते ? जब उर्दू शैली का सभी शैलियों से विरोध है तब हम उसे विरोध की दृष्टि से क्यों न देखें और क्यों न श्राशा करें कि किसी दिन उसकी दृष्टि सुधर जायगी । हमें उर्दू की दृष्टि को सुधारना है, उसकी प्रवृत्ति को ठीक करना है न कि उसके विरोध को अचल और अमर बनाकर अपनी आँख को ही फोड़ लेना है जिससे सारा भेदभाव दूर हो जाय।