पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८७

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राष्ट्रभाषा व संमेलन है और जिसके बीच वे रहे हैं उससे उनको प्रेम नहीं हो पाया है, यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है। लेकिन यह हम भूल नहीं सकते कि जिस भाषा की शैली या शब्दावली ने इस देश में सदियों तक रहकर इस देश की सेवा की है उन्हें निकाल १२ फेकना हमारे लिए न्याय की बात नहीं होगी। वे हमारे हो गए हैं। उनसे हमें अवश्य सेवा लेनी ही चाहिए। उन्हें अपनी संपत्ति समझकर अपना लेने ही में हमारा श्रेय है। हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने में हम दूसरा तर्क यह पेश करते आए हैं कि वह हिंदू और मुसलमानों की संमिलित संपत्ति है । वह हिंदू और मुसलमान क्या, सभी वर्गों की वारिस है । उत्तर की बहुसंख्यक जनता की वह वोलचाल की भाषा है। उत्तर के शहरों व ग्रामों में वह बोली व समझी जाती है । हिंदू और मुसलमानों ने उसका सारे भारत में प्रचार किया है। उसकी बोलवाल का रूप दोनों को मान्य है। इसी के द्वारा हिंदू और मुसलमान उत्तर के ही नहीं बल्कि सारे देश के लोगों से मिल सकते हैं। वह हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक है। राष्ट्र की वाणी है। हम उसी को माध्यम बनाकर राष्ट्र का उत्थान करेंगे। तब वह किसी संप्रदायविशेष की, प्रांत या वर्ग-विशेष की भाषा रह गयी तो उस हद तक क्या उसकी उपयोगिता में कमी नहीं आयेगी ? साथ ही उसकी राष्ट्री- यता में और उसके राष्ट्रवाणी होने में भी ? अतः यह आवश्यक १२-हिंदी के किसी भी पुजारी की कभी भी यह नीति नहीं रही कि सभी विदेशी शब्दों को दूर करो। सच पूछिये तो यह भी उर्दू का प्रोपेगंडा है जिसका सूत्रपात स्वयं सर सैयद अहमद खाँ ने दलबल के साथ किया और भोले भाले हिंदुस्थानियों ने उसे अक्षरश: मान लिया । १२