पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८६

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राष्ट्रभागा पर विचार है तो हमें उत्तर ही की ओर टकटकी लगाकर देखने की जरूरत नहीं। इस लेन देन में उनका अपना दिवाला कभी निकल ही नहीं सकता। इस तर्क में जितना फायदा दीखता है उतना फायदा तो नहीं, उलटे कुछ नुकसान होने की संभावना अवश्य दीखती है। वह यह है कि बोलचाल की भाषा में भी काफी संस्कृत शब्दों की प्रचुरता आवे तो प्रांतीय भाषाओं का अस्तित्व कभी मिट जाने की संभावना भी हो सकती है। राष्ट्रभाषा तो एक अंत- प्रांतीय माध्यम ही रहेगी। वह कभी अप्रत्यक्ष रूप से प्रांतीय भाषा के क्षेत्र पर आक्रमण नहीं कर सकती और न ऐसे आक्रमण का कोई स्वागत ही कर सकता है। वर्तमान समय में जो संस्कृत- प्रचुरता हिंदी में है वह काफी है । उसकी वृद्धि करने में कोई अप्राकृतिक या शीघ्रतापूर्ण प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं। इसमें हिंदीवादियों की तरफ से जो उत्साह, शीघ्रता वा आतुरता दीखती है, उसके कई कारण हैं। उनमें सबसे अधिक जबरदस्त कारण यह है कि वे उर्दू वाली भाषा के संपर्क व प्रभाव से अपने को दूर रखना चाहते हैं और उर्दू में विजातीयता और हिंदी में सजातीयता देखने लगे हैं। जिस भाषा का वर्षों उपयोग किया ११-यह कथन नितान्त भ्रम-पूर्ण है । उर्दू की स्थिति विचित्र है। उसकी लिपी राजलिपि रही और वह पतित हिंदी मुगल बादशाहों की भाषा । उसका प्रचार जब अँगरेजों के हाथ में श्राया और शिक्षा के द्वारा उसके प्रचार की सूझी तब उसी प्रकार उसका विरोध हुआ जैसे श्राज हो रहा है। पर जिस राज्यलोभ के कारण श्राज उसका सत्कार किया जा रहा है उसी के लिए उस समय भी किया गया। क्या यह भी दुर्भाम्य की बात कही जा सकती है कि जिस कांग्रेस का काम रात दिन अँगरेजी में होता रहा है उसी का उससे इतना देमनत्य है ?