पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८५

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राष्ट्रभाषा व संमेलन १७५ तो अन्य प्रांतवासियों को हिंदी सीखने में बड़ी सुविधा होगी। इसमें संदेह नहीं कि भारत सभी अहिंदी प्रांतों की भाषाओं में संस्कृत का काफी प्रचलन है और हिंदी प्रांतों से किसी किसी प्रांत में संस्कृत भाषा व साहित्य या संस्कृत प्रभावित भाषा का अधिक प्रचार है । संस्कृत से ही अधिक फायदा उठाना हो तो उन्हें हिंदी प्रांत की तरफ देखने की आवश्यकता नहीं। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि दक्षिण भारत से शंकर, रामानुज, मध्व और वल्लभ जैसे सशक्त-साहित्यज्ञों ने समूचे भारत की विजययात्रा की थी। महाराष्ट्र और बंगाल से भी संस्कृत साहित्य की धाराएँ कम नहीं चली हैं। अगर संस्कृत-प्रचुर संस्कृत-प्रधान भाषा ही हमें लेनी लिये उसी को सब कुछ बना दिया ? यदि हाँ, तो श्रापकी सच्ची राष्ट्रीयता कहाँ गई ! बार अपनी भाषा की परंपरा पर तोच श्राने नहीं देते पर चाहते हैं कि हमारी परम्भरा माड़ में चली जाय यह कहाँ की नीति है? भारत में तो ऐसा होने से रहा । हमें भी तो अपनी परंपरागत भाषा की रक्षा का उपाय करना है? कामकाजी भाषा से श्रापका काम चल सकता है पर क्या हमारा हँसना और रोना भी उधार ही रहेगा? आखिर हम किस भाषा में सभ्य संसार को अपना मुँह दिखायंगे ? फारसी वा अरबी ? अापी हिंदुस्तानी (? ने हमारा कितना विनाश किया है, इसका भी कुछ पता है ! राजेंद्री अथवा कांग्रेसी हिंदुस्तानी को पड़कर कितने प्रांत्र वा विड़ सीमांत में व्याख्याता बने यह तो हम नहीं जानते पर इतना देखते अवश्य है कि हमारे भोले भाले बच्चे किस प्रकार क्या से क्या बनाये जा सकते हैं। अथ अन्य भाषा-भाषियों को भी यह समझ रखना चाहिए कि हम 'राष्ट्रभाषा' की मृगमरीचिका में अपनी मातृभाषा को खो नहीं सकते।