पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८४

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राष्ट्रभाषा पर विचार साहित्यिक प्रगति के लिये भले ही लाभदायक हो लेकिन राष्ट्रभाषा- प्रचार की प्रगति के लिये बहुत ही विघातक है। क्योंकि जब संमेलन स्वयं मानता और देखता भी है कि हिंदी नागरी लिपि और फारसी लिपि में लिखी व पढ़ी जाती है तो राष्ट्रमा प्रेमियों को क्यों बंधन में डालें? हिंदी को संस्कृत-प्रचुर बनाने में एक तर्क यह पेश किया जाता है कि हिंदी का प्रगतिशील स्वरूप भारत की अन्य प्रांतीय भाषाओं से निकट संबंध रखे। क्योंकि भारत की सभी प्रांतीय भाषाएँ संस्कृत प्रचुर हैं। उनकी प्रगति-सूचकता भी संस्कृत से ही तअल्लुक रखती है। अगर हिदी भी संस्कृत-प्रचुर बना दी जाय ६--हिंदी-विरोध का मूल कारण लिपि ही है। उर्दू प्रेमी भली भाँति जानते हैं कि फारसी वा अरबी लिपि इतनी दोषपूर्ण है कि उसमें कोई भी भाषा भलीभाँति लिखी-पढ़ी नहीं जा सकती। उर्दू लिपि की इसी दुरूहता के कारण संस्कृत और भाषा के कितने ही अत्यंत प्रच- लित शब्द उर्दू में त्याज्य हो गये और मतरूफ की पूरी बही बन गई । अतएव फिर हम यही कहना चाहते हैं कि भाषा और लिपि के प्रश्न को एक में न साने कृपया उन्हें अलग अलग रहने दें। १०-हिंदी को 'संस्कृत-प्रचुर बनाने का प्रश्न नहीं है । भारत की सभी देशभाषाएँ संस्कृतनिष्ठ हैं । हिंदी का विकास भी ठीक उसी क्रम से और ठीक उसी दरें पर हो रहा है जिस क्रम से और जिस ढरे पर अन्य देशभाषाओं का! फिर समझ में नहीं आता कि राष्ट्र का सारा कोप हिंदी पर ही क्यों हो रहा है। क्या इसका एकमात्र कारण यही नहीं है कि उसने एक परदेशी शैली को भी अपना अंग बना लिया और हमारी उदार सरकार ने प्रसाद अथवा नीतिवश कुछ काल के