पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८३

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राष्ट्रभाषा व संमेलन लोग उसके लिये अलग अलग राय रखते हैं । इसलिये यह संमेलन घोषित करता है कि राष्ट्रभाषा की दृष्टि से वह हिंदीस्वरूप मान्य समझा जाय जिसका हिंदू, मुसलमान अादि सब धर्मों के ग्रामीण और नागरिक व्यवहार करते हैं; जिसमें रूड़, सर्वसुलभ अरबी फारसी अँगरेजी या संस्कृत शब्दों था मुद्दाविरों का बहिष्कार नहीं होता और जो साधारण रीति से राष्ट्रलिपि नागरी में तथा कहीं कहीं फारसी में लिखा जाता है। १६३५ में इंदौर के संमेलन में जो पहली व्याख्या हुई थी यह उसका शाब्दिक परिवर्तित रूप है । भाषा के नाम के बारे में व्याख्या अब अबोहर अधिवेशन में हो गई है। इन दोनों को साथ मिलाकर कोई राष्ट्रप्रेमी पढ़े तो तुरंत यही कहेगा कि हमारी राष्ट्रभाषा का नाम हिंदुस्तानी हो और उसका स्वरूप सरल, सुलभ और आमफहम हो । संमेलन ने तो इस तरह कहने के लिये हमारा रास्ता बंद ही कर दिया है यह नीति संमेलन की ८-यदि इस प्रस्ताव का सीघा यही अर्थ होता है तो नागपुर तथा मद्रास के अधिवेशन में "हिंदी-हिंदुस्तानी' वा 'हिंदी यानी हिंदुस्तानी' की धूम नहीं रहती। ध्यान देने की बात यहाँ यह है कि स्वयं महात्मा गांधी ने भी इसी कारण नागपुर में केवल 'हिंदुस्तानी' शब्द को ग्रहण नहीं किया और 'हिंदी-हिंदुस्तानी' का ऐसा जाल बिछाया कि हिंदी चौपट हो गई और उर्दू की बन आई । कहना न होगा कि हिंदी-उर्दू- संघर्ष का यह नया सूत्रपात्र महात्मा गांधी के श्रीमुख से नागपुर में ही हुआ और वहीं से मौलवी अब्दुलहक हिंदी के विनाश के लिये उठ खड़े हुए। इंदौर में महात्मा गांधी ने जिन्हें मोहने का प्रयत्न किया था उन्होंने उनकी धजियाँ उड़ाई और उन्हें उर्दू का शिकार बनाया।