पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रभाषा पर विचार पीछे पड़ा है, तो इस कथन में पूर्णसत्य नहीं धर्मसत्य ही है। अगर वह आकर्षित है, तो अपने ध्येय की सुंदरता और महत्त्व- पूर्णता की तरफ । इसलिये सिर्फ हिंदी शब्द को लेकर वह अपने ध्येय की तरफ नहीं बढ़ सकता हो तो शब्द का वह मोह नहीं रखेगा । अपने आदर्श तक पहुँचने के लिये वह अपने साधनों को पूर्ण बनाने का यत्न करेगा और अपना रास्ता साफ करेगा। संमेलन का प्रस्ताव आज कहता है कि-- हिंदुस्तानी शब्द का प्रयोग मुख्यतः इसलिये हुआ करता है कि वह देशी शब्दों द्वारा प्रभावित हिंदी शैली तथा अरबी फारसी शब्दों से प्रभावित उर्दू शैली, दोनों का एक शब्द से एक समय निर्देश करे । कांग्रेस, हिंदुस्तानी एकाडमी और कुछ गवर्मेंट विभागों में इसी अर्थ में उसका प्रयोग हुआ है और होता भी है। कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग उस प्रकार की भाषा के लिये भी करते हैं जिनमें हिंदी उर्दू शैलियों का मिश्रण है किंतु संमेलन ने अपने २४ वें अधिवेशन में एकी प्रत्ताव पास किया था जिसमें हिंदी के फारसी लिपि में लिखे जाने क स्थिति को मान्यता दी थी और अपने २६ वें अधिवेशन में पूना में, १९४० में उसी प्रस्ताव को थोड़ा सा परिवर्तित कर यों पास किया था- इस संमेलन को मालूम हुअा है कि राष्ट्रभाषा के स्वरूप के संबंध में हिंदुस्तान के भिन्न भिन्न प्रांतों में कुछ गलतफहमी फैली हुई है। ७-जानकारों से यह बात छिपी नहीं है कि सचमुच हिंदी शब्द ही राष्ट्रीयता का द्योतक है, 'हिंदुस्तानी' शब्द सांप्रदायिक और उर्दू संकीर्ण है। कोई भी सच्चा रष्ट्रप्रेमी जो उर्दू के इतिहास से अनभिज्ञ है, उसके संकेत को राष्ट्रभाषा के लिये सह नहीं सकता, उसका नाम लेना तो दूर रहा।