पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८१

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राष्ट्रभाषा व संमेलन उसका कोई ताल्लुक रह सकता है। संमेलन ने यह काम दूसरों का मानकर अपना दरवाजा उसके लिये बंद कर लिया है। आखिर कोई गैरहिंदी प्रांतवासी हिंदी क्यों सीखे १ वह हिंदी इसीलिये सीखता है कि वह राष्ट्रभाषा है । राष्ट्र ने एक कंठ से हिंदी को राष्ट्रभाषा माना है। उसे सीखकर अपने देश के सभी प्रांतवा- सियों से वह मिल सकता है और बात कर सकता है । गैर-हिंदी प्रांतवासी की राष्ट्रभाषा में न तो जातिभेद है, न भाषाभेद और न है वर्गभेद । धर्म उसके लिये गौण है। आचार-विचार उसके लिये अप्रधान है अगर हिंदी सीखने से उसकी राष्ट्रीय भावना पूरी नहीं हुई, वह सभी प्रांतवासियों के नजदीक नहीं आ सका तो हिंदी से उसका कोई प्रयोजन नहीं। उसे किसी संस्था, व्यक्ति या विचारधारा से मतलब नहीं। उसका मतलब अपने ध्येय से है, इस ध्येय सेन वह बहक सकता है न बहकाया जा सकता है। अगर कोई समझे कि गैरहिंदी प्रांतवासी हिंदी की सुंदरता, व्यापकता और साहित्यिक लोच से मोहित है, इसलिये उसके परदेशी शैली मानता है पर उसे राष्ट्रीय शैली नहीं मानता है क्या महात्मा गांधी उसी को राष्ट्रीय मानते हैं ? यदि हाँ, तो उसकी राष्ट्री- यता के कारण अथवा मुसलमानी भावना या मेल-जोल की रक्षा के हेतु सत्य कारण अथवा नीतिवश ? ६-हिंदी प्रांतवासी की हिंदी भाषा में भी कोई भेद नहीं है, है तो उसी, उसी उर्दू में जिसे भूल के कारण लोग फारसी लिपि में लिखी हिंदुस्तानी थानी हिंदी समझते हैं। सैयद इंशा ने दरिदाए- लताफत' में इस भेद-भाव का पूरा विवरण दिया है। राष्ट्रभक्तों को उसका अध्ययन करना चाहिर ।