पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/१८०

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राष्ट्रभाषा पर विचार आगे चलकर प्रस्ताव में यों लिखा है- इन निश्चित अर्थों में उर्दू और हिंदुस्तानी शब्दों का प्रचलन है । इस विषय में संमेलन का कोई विरोध नहीं है। किंतु संमेलन साहित्यिक और राष्ट्रीय दोनों दृष्टियों से अपनी समितियों के काम में हिंदी का और उसके लिये हिंदी शब्द का व्यवहार प्रचलित करता है।--- संमेलन ने राष्ट्रभाषा के लिये हिंदी शब्द के प्रयोग व प्रचार में निष्ठा और दृढ़ता से संलग्न होने की भी देशभक्तों से अपील इस प्रस्ताव से साफ जाहिर होता है कि आगे संमेलन से संबंध रखने वाला कोई भी व्यक्ति व संस्था हिंदुस्तानी शब्द का ग नहीं कर किती, न उर्दू शैली व फारसी लिपि से ही ४--हमारी दृष्टि में संमेलन' का आशय यह नहीं है । 'संमेलन' अपनी सीमा के भीतर 'हिंदी' को ही अपनाता है और घोषित करता है कि उसके क्षेत्र में हिंदुस्तानी नहीं हिंदी ही का शासन है। अन्य क्षेत्रों में कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था 'हिंदुस्तानी' का व्यवहार कर सकती है। कांग्रेस ने हिंदू सभा को सांप्रदायिक कह दिया है पर हिंदू शब्द को नहीं । संमेलन 'हिंदुस्तानी' का प्रयोग कुछ निश्चित अर्थों में मानता है पर उसे हिंदी का पर्याय नहीं मानता । उसकी दृष्टि में हिंदी तो भाषा है और हिंदुस्तानी उसकी चाहे जैसी भी हो, शैली मात्र । भाषा और शैली को पर्याय मानना दुराग्रह और अविवेक है, शास्त्र और सत्याग्रह कदापि नहीं। ५--हमारी समझ में हिंदी-भाषा का प्रचार फारसी लिपि क्या किसी भी लिपि के द्वारा किया जा सकता है पर संमेलन को नागरी लिपि का प्रचार ही इष्ट है। संमेलन उर्दू को हिंदी की फारसी वा